कुछ लोगों को अक्सर सुनने को मिल जाता है ‘अरे क्या बच्चों
जैसी हरकतें कर रहे हो?’ तो कुछ
लोगों को बार बार याद दिलाया जाता है कि ‘सुधर जाओ अब तुम बढ़े हो गए हो बच्चे नहीं रहे’। कुछ भी हो एक बात
तो साफ है कि जिन्हें भी ये सब सुनने को मिलता है उनमें कुछ तो बचपन अभी तक बचा है
और जिनमें बचपन बचा होता है असल ज़िंदगी तो वो ही जीते हैं शायद।
हम उम्र, ओहदे या रिश्तों के पायदान पार करते हुए चाहे कितने
ही बड़े हो जाए हम सब के दिल के एक कोने में बचपन ज़रूर दुबका बैठा होता है। कोई
उसे नियम, संयम और कायदे-फायदे का चाबुक दिखा कर चुप करा देता है तो कोई मौके-मौके
पर उसे थोड़ी छूट दे देता है।
तेज़ धूप और गर्मी के बाद जब बारिश की बूंदें रिमझिम गाती है
तो भीगने में किसे मजा नहीं आता। रुपये जेब में होने के बावजूद खरीद के खाने के
बजाय पत्थर मार कर तोड़े गए आम और अमरूद भला किसे नहीं भाते। शहरों में धुंए और
धूल से पटे आसमान पर अगर इंद्रधनुष दिख जाए तो फिर कौन नहीं ज़ाहिर करेगा खुशी। हम
दाल-चालव हाथ से खाना चाहते हैं पर खाते नहीं। हमें डांस नहीं आता, ख़राब ही सही
फिर भी हम डांस करना चाहते हैं पर नहीं करते। और भी न जाने कितनी छोटी-छोटी ऐसी
हसरतें हैं जिन्हें हम पूरा करना चाहते हैं और जो पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ हमारी
ज़िंदगी से जुड़ी है दूसरों की पसंद नापसंद से उनका कोई लेना देना नहीं पर हम नहीं
करते क्यों? क्योंकि हम
खुद से ज़्यादा दूसरों की सोच और दिमाग से चलते हैं। हम खुद क्या चाहते हैं इससे
पहले हम ये सोचते हैं कि दूसरे क्या सोंचेगे? क्या कहेंगे? अरे भाई दूसरे क्या सोचते हैं ये दूसरों पर छोड़ दो,
किसी और के दिमाग का बोझ अपने दिमाग पर डालने से कोई फायदे नहीं होगा। और फिर
छोटी-छोटी खुशियों को अपनाने में इतना क्या हिचकिचाना। दूसरों की फिक्र तो तब करो
जब दूसरों के साथ कुछ ग़लत करने जा रहे हो।
अपने जीवन में बचपन को ज़िंदा रखने के कई फायदें हैं। आपके
होठों पर हमेशा एक मासूम मुस्कान होगी। दिमाग में कल की फिक्र नहीं बल्कि आज का
जश्न होगा। जीतने का जज़्बा तो होगा पर हार की टीस घर नहीं बनाएगी। सफलता पर दिल
खोल कर हंस लेगें और घमंड हंसी के साथ निकल जाएगा सिर नहीं चढ़ पाएगा। और अगर कभी
निराशा या विफलता हाथ लगी तब भी दिल टूटेगा नहीं बल्कि अगली कोशिश के लिए तुरंत
तैयार मिलेगा। अगर बचपन दिल में बसा लें तो फिर बहुत सी बुराईयां खुद ब खुद बाहर
का रास्ता तलाश लेंगी।
हम अक्सर छोटे बच्चों को देखते हैं जो हंसते हंसते रोने लगते
हैं और थोड़ी ही देर में फिर से सामान्य हो जाते हैं। कभी एक-दूसरे से झगड़ते हैं
तो अगले ही पल ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। हम सब ने खुद भी उन
लम्हों को ज़िया है और पीछे छोड़ आए हैं ज़रूरत है पर कुछ कदम पीछे लौटने की और उन
लम्हों को समेटकर खुद में बसाने की। कहते हैं वक्त कभी नहीं लौटता, सही भी है पर
यादें और उनमें बसी भावनाएं हमेशा खींच कर वर्तमान में लायी जा सकती हैं।
छोटी सी कोशिश, दूसरों के लिए नहीं खुद के लिए मन में बचपन को
बसाने की। सच्चाई और अच्छाई दोनों ही बच्चों की खूबियां हैं, बचपन की निशानियां
हैं इन्हें खोने मत दीजिए, दिल में बसाइये और बढ़ाइये।
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