Tuesday 4 March 2014

हर दिन है हमारा



घर की रसोई में जल्दी जल्दी हाथ चलाती रोटियां बनाती सुमन, इस घर के बाद दूसरे घर भी जाना है उसे खाना बनाने। आइने के सामने उतनी ही तेज़ी से अपने बाल बनाती नेहा, घर से जल्दी निकलना है उसे दोनों बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद ऑफिस की ज़रूरी मीटिंग में टाइम से पहुंचना है। आठ साल की पलक अपने छोटे भाई पुलकित की मदद कर रही है जूते के रिबन बांधनें में फिर उसे भी तैयार होना है स्कूल के लिए। विमला देवी घर के मंदिर में भजन कीर्तन में व्यस्त है उनकी प्रार्थना में उनके घर के हर शख़्स की सलामती और खुशहाली की मन्नतें छिपी हैं। ये झलकियां हमारे देश के तकरीबन हर घर में देखनें को मिल जाएंगी। घर की छोटी बिटिया से लेकर बूढी दादी तक हर महिला अपने कुछ मांगे तो कुछ लादे गए कर्तव्यों को रोज जीतीं है।

अपने आत्मविश्वास को चट्टानों की चादर से ढ़क रोज तूफानों से जूझती हैं औरतें। उम्र, रंग, भाषा, महजब, ओहदे और तजुर्बे की ज़मीन ज़रूर जुदा होती है इनकी, पर सिर के ऊपर पसरा सपनों और अरमानों का आसमां एक ही है इनका। इनके सपनों में हमेशा इनका पूरा बसेरा बसता है, आंखें इनकी होती हैं पर सपने उसमें अपनों के लिए संजोती हैं। एक मां अपने बेटे की खुशहाली के सपने देखती है, एक पत्नी पति की तरक्की के लिए, एक बेटी कामयाबी की ओर बढ़ते अपने हर कदम से अपने पिता की खुशियों का रास्ता बनाती है, एक बहन हर बेजान धागे में अपने भाई की लंबी उम्र की दुआ भरती है। और ये सब अपने हर रिश्ते को किसी एक दिन नहीं अपने प्यार और समर्पण से हर रोज सींचती हैं।

सिर्फ परिवार और घर ही क्यों, घर के बाहर की दुनिया में भी रोज नये रास्ते बनाती और नये मुकाम तय करती हैं यें । कुछ रास्तों पर चलते हुए ठोंकरे भी लगती है, कुछ इंसान रूपी जानवरों से बचना संभलना भी पड़ता है कुछ तेजाब में भीगें शब्दों के तीर कानों को चीरते हुए सीधे आत्म-सम्मान पर हमला भी करते हैं पर इन कुछ छोटे कुछ गहरे घावों को समेटे उनपर हौसले की पट्टी बांध वो औरतें फिर से अपनी मंजिल तक पहुंचती नज़र आती हैं। ये औरतें अपनी ही दुनिया में अपने आधे हक की लड़ाई रोज लड़ती हैं, कभी हारती है तो कभी जीत जाती हैं। हार का दर्द उनकी जागीर बन जाती है पर जीत की मिठाई से हर कोई अपना मुंह मीठा करना चाहता है।
अपनी खुशियों, अपनी लड़ाइयों, अपनों के लिए प्यार और अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ ये औरते चौबीस घंटे सातों दिन दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक मुस्तैद है। हर घर के दिन की शुरूआत इन्हीं की पुकार से होती है और हर रात सबसे आखिरी नींद इन्हीं की आंखों में बसती है। तो सिर्फ एक दिन कैसे ख़ास हो सकता है इनके लिए। इनका तो हर दिन ख़ास है कुछ में मुस्कुराहटें मिलती हैं तो कुछ आंखों में नमी का सबब बनते हैं। 

अगर दिन ही बांटना है तो हर दिन आधा दिन महिला दिवस और आधा पुरूष दिवस होना चाहिए। सिर्फ एक दिन महिला सम्मान और तीन सौ चौंसठ दिन अपने नाम करने के बजाय हर दिन आधा ही सही पर पूरा और सच्चा सम्मान मिलना चाहिए।

शिखा द्विवेदी

Monday 3 February 2014

अंश, पर वंश नहीं?




घर का चिराग, वंश को आगे बढ़ाने वाला, बुढ़ापे की लाठी और न जाने क्या क्या तमगे बेटों को गाहे बगाहे दिए जाते हैं । बेटियों को भी कोई घर की लक्ष्मी कहता है तो कोई परिवार की इज्ज़त। पर ऐसे लोगों की भी कमी नही जो बेटियों के दुनिया में आते ही उन्हें पराया धन और दान बताना शुरू कर देते हैं अगर उन्हीं के शब्दों को थोड़ा विस्तार से समझें तो बेटियां मां-बाप के घर किसी दूसरे की अमानत होती हैं जिन्हें सही वक्त आने पर उनके असली हकदार को दान कर दिया जाता है। कितनी बुरी सोच है ये, ऐसे वाक्य जिन्हें अगर अपशब्दों की श्रेणी में रख दिया जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। लोग अपनी मुट्ठी भर निर्जीव ज़मीन से इतना लगाव रखते हैं कि दूसरे हाथों में उसे जाता देख खूनखराबे पर उतर आते हैं फिर बड़ी आसानी से एक जीती जागती स्त्री को पराया धन कैसे कह देते हैं। ये शब्द, विचार और बातें हमारे समाज में इस तरह रच बस गई हैं कि इस पर कितनी ही बहस कर ली जाय इस ग़लत सोच को लोग रीति-रिवाज़, धर्म और समाज की चादरों से ढांक कर सही साबित करते रहेंगे।

कुछ दिनों पहले की बात है मेरी एक मित्र ने बेटी को जन्म दिया ये उसका दूसरा बच्चा है। पर ये ख़बर मुझे जिस रूप में दी गई वो कुछ इस तरह थी, अरे फिर से लड़की पैदा हो गई। मैं दोस्त से मिलने और बधाई देने उसके घर गई वहां कुछ लोगों के चेहरे इस तरह मुरझाए नज़र आए मानो कोई लूट ले गया हो उन्हें। मेरी मित्र के ससुर जी को दोहरा सदमा लगा था एक तो बच्चा ऑपरेशन से हुआ जिसमें 60 हज़ार का खर्चा हो गया दूसरा फिर से बिटिया आ गई। उनका मानना था कि लड़का हो जाता तो खर्चा करना सफल हो जाता और घर का चिराग भी मिल जाता। बड़ा अफसोस हो रहा था उनकी सोच पर लेकिन तसल्ली थी कि मेरी दोस्त और उनके पति ऐसी बातों से विचलित हुए बिना अपनी बेटियों को ही अपनी दुनिया मानते हैं। मन तो बहुत हुआ कि वापस आने से पहले पूज्य अंकल जी से चंद सवाल करूं और उनकी घटिया सोच की बुनियाद को थोड़ा हिलाने की कोशिश करूं पर मौके और रिश्ते की नज़ाकत को देखते हुए इस काम के लिए दूसरे वक्त और महौल का इंतज़ार करना बेहतर समझा।

सवाल ऐसे है जो मन और मस्तिष्क के किसी भी कोने में छिपने को तैयार नहीं। समझ नहीं आता आखिर बेटे दो हों या चार जब इस बात पर लोगों को तकलीफ नहीं होती तो फिर दो बेटियां क्यों आंख की किरकिरी बन जाती हैं। क्या फर्क पड़ जाता है औलाद के लिंग से। क्या बेटियां ज़्यादा खाना खाती है, क्या उन्हें पढ़ाने और पालने में बेटों की तुलना में ज़्यादा धन खर्च होता है क्या है वजह बेटियों की पैदाइश से नफ़रत करने की। क्या भार लाद लेती हैं ये बेटियां परिवार और समाज पर जो बात बात पर उन्हें बोझ घोषित कर दिया जाता है। उन्हें स्कूल भेजने से पहले ही उनकी शादी के खर्च का ब्यौरा तैयार होने लगता है । क्या शादी से आगे या उससे इतर बेटियों का कोई भविष्य नहीं होता। जब बेटों के भविष्य के लिए ज़मीन जायदाद इकट्ठा करने में किसी को कोई तकलीफ नहीं होती फिर बेटी के भविष्य के लिए धन जमा करने को मजबूरी क्यों बना देते हैं।

सबसे तकलीफ़देह बात यह मानना कि वंश बेटे आगे बढ़ाते हैं? क्या बेटियां आसमान से टपकती जो उन्हें पैदा होते ही पराया घोषित कर दिया जाता है? आखिर उनमें भी मां-बाप का अंश उतना ही होता है जितना किसी बेटे में फिर किस आधार पर बेटों को ही वंश का मालिक क्यों घोषित कर दिया गया है। क्या बेटियां अपने नाम के साथ साथ अपने मां-बाप का नाम आगे नहीं बढ़ाती क्या उनका अस्तित्व समाज में उनके परिवार की अगुवाई नहीं कर सकता। ज़रूरी है इन मुद्दों का बार बार उठना शायद इसी तरह उठते गिरते इन सवालों को इनका उत्तर और मंज़िल मिल जाए।

                              -शिखा द्विवेदी


Thursday 16 January 2014

बचपन रखें ज़िंदा



कुछ लोगों को अक्सर सुनने को मिल जाता है अरे क्या बच्चों जैसी हरकतें कर रहे हो?’ तो कुछ लोगों को बार बार याद दिलाया जाता है कि सुधर जाओ अब तुम बढ़े हो गए हो बच्चे नहीं रहे। कुछ भी हो एक बात तो साफ है कि जिन्हें भी ये सब सुनने को मिलता है उनमें कुछ तो बचपन अभी तक बचा है और जिनमें बचपन बचा होता है असल ज़िंदगी तो वो ही जीते हैं शायद।
हम उम्र, ओहदे या रिश्तों के पायदान पार करते हुए चाहे कितने ही बड़े हो जाए हम सब के दिल के एक कोने में बचपन ज़रूर दुबका बैठा होता है। कोई उसे नियम, संयम और कायदे-फायदे का चाबुक दिखा कर चुप करा देता है तो कोई मौके-मौके पर उसे थोड़ी छूट दे देता है।

तेज़ धूप और गर्मी के बाद जब बारिश की बूंदें रिमझिम गाती है तो भीगने में किसे मजा नहीं आता। रुपये जेब में होने के बावजूद खरीद के खाने के बजाय पत्थर मार कर तोड़े गए आम और अमरूद भला किसे नहीं भाते। शहरों में धुंए और धूल से पटे आसमान पर अगर इंद्रधनुष दिख जाए तो फिर कौन नहीं ज़ाहिर करेगा खुशी। हम दाल-चालव हाथ से खाना चाहते हैं पर खाते नहीं। हमें डांस नहीं आता, ख़राब ही सही फिर भी हम डांस करना चाहते हैं पर नहीं करते। और भी न जाने कितनी छोटी-छोटी ऐसी हसरतें हैं जिन्हें हम पूरा करना चाहते हैं और जो पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ हमारी ज़िंदगी से जुड़ी है दूसरों की पसंद नापसंद से उनका कोई लेना देना नहीं पर हम नहीं करते क्यों? क्योंकि हम खुद से ज़्यादा दूसरों की सोच और दिमाग से चलते हैं। हम खुद क्या चाहते हैं इससे पहले हम ये सोचते हैं कि दूसरे क्या सोंचेगे? क्या कहेंगे? अरे भाई दूसरे क्या सोचते हैं ये दूसरों पर छोड़ दो, किसी और के दिमाग का बोझ अपने दिमाग पर डालने से कोई फायदे नहीं होगा। और फिर छोटी-छोटी खुशियों को अपनाने में इतना क्या हिचकिचाना। दूसरों की फिक्र तो तब करो जब दूसरों के साथ कुछ ग़लत करने जा रहे हो।

अपने जीवन में बचपन को ज़िंदा रखने के कई फायदें हैं। आपके होठों पर हमेशा एक मासूम मुस्कान होगी। दिमाग में कल की फिक्र नहीं बल्कि आज का जश्न होगा। जीतने का जज़्बा तो होगा पर हार की टीस घर नहीं बनाएगी। सफलता पर दिल खोल कर हंस लेगें और घमंड हंसी के साथ निकल जाएगा सिर नहीं चढ़ पाएगा। और अगर कभी निराशा या विफलता हाथ लगी तब भी दिल टूटेगा नहीं बल्कि अगली कोशिश के लिए तुरंत तैयार मिलेगा। अगर बचपन दिल में बसा लें तो फिर बहुत सी बुराईयां खुद ब खुद बाहर का रास्ता तलाश लेंगी।

हम अक्सर छोटे बच्चों को देखते हैं जो हंसते हंसते रोने लगते हैं और थोड़ी ही देर में फिर से सामान्य हो जाते हैं। कभी एक-दूसरे से झगड़ते हैं तो अगले ही पल ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। हम सब ने खुद भी उन लम्हों को ज़िया है और पीछे छोड़ आए हैं ज़रूरत है पर कुछ कदम पीछे लौटने की और उन लम्हों को समेटकर खुद में बसाने की। कहते हैं वक्त कभी नहीं लौटता, सही भी है पर यादें और उनमें बसी भावनाएं हमेशा खींच कर वर्तमान में लायी जा सकती हैं।

छोटी सी कोशिश, दूसरों के लिए नहीं खुद के लिए मन में बचपन को बसाने की। सच्चाई और अच्छाई दोनों ही बच्चों की खूबियां हैं, बचपन की निशानियां हैं इन्हें खोने मत दीजिए, दिल में बसाइये और बढ़ाइये।