Monday 30 September 2013

हिन्दी के चंद दिन


हिन्दी पखवाड़ा बीत गया और साथ ही बीत गई हिन्दी के प्रति सम्मान दिखाने की बाध्यता। अगले बरस फिर से आएगा ये 15 दिनों का त्योहार फिर से सज जाएंगे सरकारी दफ़्तरों और इमारतों पर हिन्दी के सम्मान में कुछ बैनर और बोर्ड। कभी-कभी मुझे लगता है कि हिन्दी पखवाड़े और पितृपक्ष में बड़ी समानता है, दोनों ही पन्द्रह दिनों तक मनाये जाते हैं, हिन्दू धर्म के अनुसार पितृपक्ष में पूर्वजों को याद किया जाता है, उन्हें तृप्ति मिले इसलिए ब्राहमणों को भोज दिया जाता है, उसी तरह सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के दौरान देश का पूरा सरकारी महकमा हिन्दीमय हो जाता है हर तरह सिर्फ हिन्दी के विकास की बातें होती हैं, हिन्दी में तरह तरह की प्रतियोगिताएं और न जाने क्या क्या। मेरा मानना है कि इस तरह हम हिन्दी को मजबूत नहीं बल्कि अपने से दूर कर रहे हैं। पूरे 15 दिनों की श्रद्भांजलि देकर, और श्रद्भांजलि किसे दी जाती है ये तो सभी जानते हैं। हिन्दी को गुज़रा हुआ समझ कर उसे याद करने की ज़रूरत नहीं है, हिन्दी उतनी ही सजीव है जितने हम और आप। जब हम अपने विकास के लिए रोज प्रयास करते हैं, रोज सीखते और बढ़ते हैं तो फिर हिन्दी के लिए सिर्फ 15 दिन क्यों।

कई सरकारी दफ़्तरों में एक तख्ती हमेशा टंगी मिलती है अगर आप हिन्दी का प्रयोग करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी यही तख्ती एक सरकारी दफ़्तर में मैंने अपने साक्षात्कार के दौरान देखी। यही नहीं प्रवेश द्वार से लेकर और साक्षात्कार कक्ष तक कई ऐसी ही हिन्दी के प्रति सम्मान दर्शाती पंक्तियां मुझे पढ़ने को मिलीं, बहुत खुशी भी हुई सोचा कि चलो अब अपनी ही भाषा में साक्षात्कार दूंगी। साक्षात्कार कक्ष में घुसी तो सबसे पहले मुझे अंग्रेजी में यह हिदायत दी गई कि आप हिन्दी का एक शब्द भी इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। बहुत बड़ा धक्का लगा मुझे। भारत में अंग्रेजी शासन तो अपनी आंखों से नहीं देखा था मैंने पर उस दिन पता चल गया कि क्या होता होगा हिन्दी बोलने वाले भारतीयों के साथ। बेमन से साक्षात्कार दिया और बाहर चली आयी मन किया कि वहां हिन्दी की प्रशंसा में लगी सारी तख्तियां उखाड़ कर फेंक दूं पर ऐसा करना मेरे बस में नहीं था फिर जैसी उम्मीद थी मेरा वहां चयन भी नहीं हुआ। सरकारी दफ़्तर ही क्यों हमारे कितने सांसद संसद की कार्यवाही के दौरान हिन्दी में प्रश्नोत्तर करते नज़र आते हैं? मुश्किल से चंद सांसद ही हिन्दी का उपयोग संसद में करते हैं। बाकी जिन्हें हिन्दी आती है वो भी नहीं करते और जिन्हें नहीं आती उनकी तो मजबूरी है।



यह तो बस एक छोटा सा किस्सा था ऐसे न जाने कितने दंश हिन्दी को रोज झेलने पड़ते हैं और ये तब तक जारी रहेगा जब तक हिन्दी रोज़गार की ज़रूरत नहीं बन जाती। बचपन में पढ़ा था आवश्यकता अविष्कार की जननी है अब लगता है आवश्यकता सिर्फ अविष्कार नहीं भाषाओं की भी जननी है। हिन्दी का विकास सिर्फ तख्तियां लगाने, हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाने से संभव नहीं हैं। हिन्दी या किसी भी दूसरी भाषा का विकास सिर्फ उसकी उपयोगिता पर निर्भर है। हिन्दी फिल्में लोकप्रिय क्यों हैं, टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले ज़्यादातर विज्ञापन हिन्दी में क्यों होते हैं क्योंकि वो बाज़ार की ज़रूरत हैं और उनसे निर्माता और निर्देशक मुनाफ़ा कमाते हैं। हिन्दी में फ़िल्में और विज्ञापन बनाना किसी का हिन्दी प्रेम नहीं है बल्कि ये उनका रोज़गार है जिससे उनकी कमाई होती है। अगर मुनाफ़ा बंद हो जाए तो हिन्दी की जगह कोई और भाषा ले लेगी। इसलिए ज़रूरी है कि हिन्दी का रोज़गार की भाषा के रूप में विकास हो। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी पढ़ने और पढ़ाने की व्यवस्था हो। साथ ही ज्ञान और भाषा को एक ही तराजु में तौलनें की प्रक्रिया बंद हो क्योंकि किसी एक ख़ास भाषा का ज्ञान होना एक अलग बात है और ज्ञानी होना अलग।


                                                           

Friday 13 September 2013

मैं हिन्दी हूं




मैं हिन्दी हूं, सिर्फ भाषा नही एक जीवन हूं, जीवनशैली हूं.. पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्षिण तक फैली हूं। हर जाति,धर्म,और भाषा के लोगों के साथ हो ली हूं, किसी की सखा किसी की सहेली हूं। मैं हवा हूं, बादल हूं, परिंदा हूं सिर्फ एक देश नहीं दुनिया के हर कोने में घूमी हूं। मैं हठी नहीं हूं पर आत्मसम्मान मुझे भी है प्यारा। मैं हर परिवेश, महौल और समय में घुलमिल जाती हूं, परिवर्तन सृष्टि का नियम है इसे मैं भी मानती हूं और बदलाव को खुले दिल से मैं भी स्वीकारती हूं।  
मैं हर मां की लोरी में उसके बेटे का दुलार हूं। मैं मंदिर में प्रार्थना, मस्जिद में नमाज़ और गुरूद्वारे की अरदास हूं। प्रेमी के ख़त में प्रेमिका के होठों की मुस्कान हूं। मैं हर चौराहे पर, हर फुटपाथ के कोने पर बैठे बेबस-लाचार की आवाज़ हूं। मैं कई रिश्तों की डोर हूं। कई ग्रंथों की आत्मा हूं। किसी का गर्व तो किसी की जीविका का साधन हूं। मैं सुन्दर हूं, सहज और सरल भी हूं, किसी भी रंग में मैं रंग जाती हूं और जो एक बार मेरे संग हो लेता है मुझमें ही मिल जाता है।
पर कभी कभी मैं भी दुखी और उदास हो जाती हूं। मेरे दुरूपयोग पर बस आंसू बहा कर रह जाती हूं। जब अपशब्दों के तीर किसी को घायल करते हैं तो मेरे भी सीने पर कई शूल मिलते हैं। जब लालच की राजनीति के लिए मुझे भरी सभा में नचाया जाता है तो मैं एक ही दिन में बार बार मरती हूं।

फिर भी मेरे अपनों ने मुझे जिंदा रखा है। मेरे सपनों ने मुझे पंख दिए हैं। मेरा विस्तार निरंतर जारी है, मैं दुनिया पर राज करूं न करूं पर करोंड़ों दिलों की मैं रानी हैं। 

Saturday 7 September 2013

कब बदलेगी सोच?



मेरी पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर एक बड़ा ही अजीब सा तथ्य रखा। उनका (हो सकता है और भी बहुत से लोगों का) मानना है कि लोग लड़कियां इसलिए नही चाहते क्योंकि लड़कियों की इज़्ज़त की सुरक्षा उनको पढ़ाने लिखाने और उनकी शादी करने की ज़िम्मेदारी से कहीं ज़्यादा बड़ी हो गई है। उनकी कही इस बात से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अपने घर परिवार और आस-पास कई बार इस तरह की दलीलें सुन चुकीं हूं।
बहुत ही दुख की बात है कि आज हमारे समाज में महिला अपराध के बारे में जितनी खुल कर बातें हो रहीं हैं, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून कड़े किए जा रहे है, महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और समाज में उनकी हिस्सेदारी को ढोल पीट कर हर मंच पर रखा जा रहा है उतना ही उन्हें इस दुनिया में आने से रोका जा रहा है।
आश्चर्य होता है खुद को ऐसे समाज में देखकर जहां हमारे वजूद को बचाने के लिए हमें रोज एक लड़ाई लड़नी पड़ती है, कभी परिवार से, कभी समाज से।
एक ओर जहां कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कई सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर देश में लिंगानुपात लगातार बिगड़ता जा रहा है। 1000 पुरुषों पर सिर्फ 914 महिलाएं। और सबसे ज़्यादा ये बात हैरान करती है कि गांवों की तुलना में शहरों के पॉश कहे जाने वाले इलाक़ों में अजन्मियों का क़त्ल सबसे ज़्यादा हो रहा है। उन्हीं इलाक़ों में रहने वाले कुछ ख़ास लोग बड़े बड़े सार्वजनिक मंच और न्यूज़ स्टूडियों में संवेदना के कुछ आंसू बहाकर और समस्या का समाधान शिक्षा प्रचार को थमा कर अपना काम पूरा कर देते हैं। मन को कई बार इस बात से आश्वासन दिया कि हो सकता है जैसे जैसे हमारा समाज शिक्षित होगा वैसे वैसे गर्भ में पल रही बच्चियों को भी उनके हिस्से की दुनिया नसीब होगीं, फिर अगले ही पल एक और सवाल ज़ेहन में पैदा हो गया, अगर कन्या भ्रूण हत्या का शिक्षा से कोई लेना देना होता तो पढ़े लिखे डॉक्टर अपने अस्पतालों में इस तरह का पाप न होनें देते और न करते। बात साफ है मुद्दा शिक्षा का नहीं सोच का हैं, और खुली और बड़ी सोच के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं महौल की ज़रूरत होती है।
एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि सिर्फ लड़की होने की वजह से कई बार घर से बाहर अपनी पहचान बनाने से पहले हमें अपनों को ही इम्तिहान देना पड़ता है, उन्हें भरोसा दिलाना पड़ता है कि हम घर, बच्चे, परिवार सब की इच्छाओं और फरमाइशों को पूरा करने के बाद ही कुछ अपने दिल की सुनेगें।
किसी ने राह चलते, भरी बस या भीड़ भरे बाज़ार में हमारे साथ बदसलूकी की और हमने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया तो बहादुरी देने के बजाय कई बार उंगलियां हमारे चरित्र और पहनावे पर ही उठने लगती हैं। कहने में बहुत आसान लगता है कि बलात्कार से जिंदगी ख़त्म नहीं हो जाती, पीड़ित महिला को फिर से पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी ज़िंदगी जीनी चाहिए, कानून और समाज उसके साथ है और न जाने क्या क्या। पर क्या वाकई ऐसा है? और अगर हां तो फिर क्यों बलात्कार की शिकार एक आठ साल की बच्ची को उसके स्कूल से निकाल दिया जाता है? क्यों उनके मजदूर बाप को काम मिलना बंद हो जाता है? क्यों आस-पड़ोस के लोग अपने बच्चों को उस लड़की के साथ खेलने नहीं देते? क्यों हमारा समाज ऐसा बर्ताव उन लोगों के साथ नहीं करता जो इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं? क्यों उन लोगों के खिलाफ़ कड़े कदम नहीं उठाए जाते जो लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मार देते हैं क्यों? क्यों ऐसे डॉक्टर्स को जेल में नहीं डाला जाता जो पैसों की लालच में जल्लाद बनें जा रहे हैं? क्यों?
इन सब सवालों पर हर बड़े मंच पर लगातार बहस जारी है....न जाने कब तक चलती रहेगी...कब ख़त्म होगा ये इंतज़ार और कब मिलेगा लड़कियों को पैदा होने और सम्मान से जीने का पूरा अधिकार ?

-शिखा द्विवेदी