Wednesday 30 October 2013

पहचान की परिभाषा


मेरी एक मित्र हैं, नारी विमर्श से जुड़े सभी मुद्दों पर उनकी राय बेजोड़ है। पर उनके एक सवाल ने मेरे मन में अनेक सवालों को जन्म दे दिया। उनका कहना था कि हर तरह के फॉर्म में सिर्फ पिता या पति का नाम क्यों पूछा जाता है? माता या पत्नी का क्यों नहीं? उन्हें पिता के नाम पर तो फिर भी कम आपत्ति थी पर पति को वो अपनी पहचान का हिस्सा मानने को बिल्कुल तैयार नहीं, (गौरतलब ये है कि वो शादीशुदा हैं)। उनका तर्क है कि अगर पत्नी के लिए अपने साथ पति की पहचान जोड़ना ज़रूरी है तो फिर पति की पहचान पत्नी के नाम से क्यों नहीं।
ये तो एक उदाहरण था। अब दूसरा सुनिए..मैं ट्रेन से दिल्ली से कानपुर आ रही थी। चेअर कार कंपार्टमेंट में मेरी आगे वाली सीट पर एक महिला यात्री आई...उम्र 30-35 के बीच रही होगी। उनके पास एक बड़ा सा बैग था, जिसे वो ऊपर रखने की कोशिश कर रही थीं, पर उनसे वो बैग उठाया नहीं जा रहा था..तभी उनकी बगल की सीट पर बैठे एक यात्री ने उनकी मदद करने की कोशिश की, पर उस महिला ने मदद लेने से साफ इंकार कर दिया, साथ ही उस आदमी को नसीहत भी दे दी कि औरतों को कमज़ोर मत समझा करों। आखिरकार उन्हें अपना बैग नीचे ही रखना पड़ा और पूरे सफर के दौरान गैलरी से आने जाने वाले यात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़ा।
मैं खुद महिलाओं के विकास और सुरक्षा की समर्थक हूं पर इस तरह पुरूषमुक्त समाज की नहीं। हमें ये क्यों नहीं समझ आता कि स्त्री और पुरुष दोनों ही इस सृष्टि के निर्माण और विकास के बराबर हिस्सेदार हैं, इनमें से कोई भी अकेले 100 फ़ीसदी का अधिकार हासिल नहीं कर सकता और अगर ऐसा करने की कोशिश हुई तो सिर्फ विनाश और विराम ही हाथ लगेगा।
सिर्फ एक फॉर्म में पत्नी या माता का नाम दर्ज हो जाने से सम्पूर्ण नारी जाति को उसकी पहचान नहीं मिल सकती, या फिर किसी पुरूष की मदद ले लेने से किसी स्त्री का कद कतई नहीं घट सकता। हमारे देश के कई इलाक़ों में न तो स्त्री को अपना नाम लिखना आता है न पुरुष को, दिन रात पेट की भूख मिटाने में जुटे ऐसे लोगों को भरपेट भोजन मिलना ही सम्मान पा लेने जैसा लगता है, ऐसे में किसी कागज पर नाम दर्ज करा लेने उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता। रहीं बात औरतों के साथ हो रहे अपराध और अन्याय की तो इसके लिए उन्हें सुरक्षा और उससे भी ज़्यादा आत्मरक्षा के लिए जागरुक बनाना ज़रूरी है। औरत होने के नाते हमें अपने साथ हो रहे हर तरह के अन्याय के लिए आवाज़ उठानी चाहिए और अपने हर अधिकार के लिए लड़ना चाहिए, पर इसके लिए हमें अपने घर और बाहर मौजूद उन पुरूषों को दोयम दर्जे पर बिल्कुल नहीं रखना चाहिए जो हर तरह से हर परिस्थिति में हमारे साथी बने हैं। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि मान लीजिए आप के घर में आग लग जाए और सबकुछ तबाह हो जाए या फिर बाढ़ का पानी आपके बसे बसाए आशियाने को बहाकर ले जाए तो फिर आप क्या करेंगे?? क्या फिर आप जब तक ज़िंदा रहेंगे तब तक आग पर खाना नहीं बनाएंगे? या फिर पानी के बिना जी पाएंगे? ठीक वैसे ही औरतों के साथ हो रहे अन्याय के लिए सिर्फ दोषी पुरूषों से ही नफ़रत की जा सकती है इस धरती पर उनके अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। महिलावादी होना बिल्कुल ग़लत नहीं पर अपनी पहचान के लिए अपने से जुड़े हर रिश्ते को कुर्बान कर देना मेरी समझ से परे है, मैं ग़लत भी हो सकती हूं पर मेरा मानना है कि अगर आप सारे बंधनों से परे अपनी बड़ी पहचान के साथ कितनी भी ऊंचाई पर हो आपके ऑफिस का प्यून, आप का ड्राइवर, आपका धोबी या फिर सब्जी वाला इनमें कोई भी पुरूष हो सकता है और आप अपनी रोजमर्रा की ज़िदंगी में इनकी मौजूदगी चाह कर भी नकार नहीं सकतीं।