Tuesday 31 December 2013

मन विजय



मन उदास बैठा था रूठा

सोचा कैसे इसे मनाऊं

कौन कौन से झूठ मैं बोलूं

कितने सच को फिर दफनाऊं

मन की ये बीमारी तो नित रोज है बढ़ती जाएं

क्षण संभले,क्षण टूटे, बिखरे..फिर पल में ही जुड़ जाए।

मन को वश में करने के करते हैं लाख उपाय

पर मन के दरिया में वो सब तिनके से बह जाएं।

कोई बांधे, कोई भूले कोई ध्यान का झूला झूले

पर मायावी मन के आगे इन शस्त्रों की एक न चले।

मन का राजा बनना है तो कुछ करना होगा दूजा

इस तिकड़मी दुनिया में तुमको बनना होगा बच्चा।

मन भी पीछे पीछे फिर एक बच्चा सा हो जाएगा

चंचल होगा, नटखट होगा पर नेक दिल कहलाएगा।

न छल कपट की नदिया होगीं, न बैर का होगा साया

न लालच के फल पनपेंगे, न चिंता न भय और माया।

जीवन खेल खिलौनों सा फिर रंग-बिरंगा होगा,

मन का घोड़ा भी होगा साथी अपना, सही दिशा दौड़ेगा।




Sunday 29 December 2013

नया लोकतंत्र


हममें से बहुतों ने आजादी की लड़ाई, स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष को सिर्फ किस्से कहानियों और स्कूल की किताबों में पढा सुना है, लगता था कुछ बिरले ही होंगे जो वर्तमान बदलकर अदभुत इतिहास रचते होंगे। आज फिर से भारतीय समाज और राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया, लाखों करोड़ों के बीच से बदलाव की गुहार लगाती एक आवाज़ ने राजनीति के मंझे हुए कलाकारों को अपने सुर ताल दुरुस्त करने की सीख दे दी है।

क्या आज से ठीक पांच साल पहले के दिल्ली विधानसभा चुनावों के वक्त अरविंद केजरीवाल ने सोचा होगा कि अगले चुनाव की दिशा और दशा वो तय कर रहे होंगे? शायद नहीं । यहां तक कि चुनावों से पहले तक उन्हें 28 सीटों पर जीत हासिल करने की उम्मीद नहीं थी पर कहते है न कि जिस तरह क्रिकेट के मैदान पर आखिरी गेंद तक मैच का रुख बदल सकता है ठीक वैसे ही राजनीति की बिसात पर कब कौन किसकी बाजी पलट दे कुछ नहीं कह सकते।

कुछ लोग कहते हैं अरविंद की किस्मत में राज योग है, कुछ उन्हें तिकड़मी और खिलाड़ी मान रहें है तो कुछ मौके पर चौका मारने वाला शख्स । कोई कह रहा है अरविंद ने कांग्रेस का हाथ थाम कर अपने सिद्धांतों से समझौता किया तो कोई उन्हें कांग्रेस के बिछाए जाल में फंसता देख रहा है। इन सब आरोपों, विरोध, समर्थन और प्रशंसा के बीच जो सबसे अहम बात सामने आई है वो है विश्वास और उम्मीद। विश्वास लोकतंत्र पर और उम्मीद बदलाव की। जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शुरू हुए एक आंदोलन ने सत्ता बदल डाली और बड़े राजनीतिक दलों को चुनावी वादों और इरादों पर फिर से विचार करने पर मजबूर किया ये भले ही चौंकाने वाला न हो पर उम्मीद से कुछ बढ़कर ज़रूर है।

दिल्ली की सियासत में ये जो नया अध्याय जुड़ा है उससे एक और बात साफ हो जाती है कि विरोध की हर लहर सत्ता के गलियारों की दीवारों से टकराकर बिखर नहीं जाती है बल्कि ऐसी आंधी में कभी कभी दीवारें दरक कर टूट भी जाती हैं।

सवाल ये नहीं कि आम आदमी पार्टी की सरकार कितने दिन या महीनें चलती है, सवाल ये भी नहीं है कि वो दिल्ली के लोगों से किए सारे वायदे पूरे कर पाएंगे या नहीं बल्कि देखने, समझने और महसूस करने लायक ये है कि भले ही कुछ वक्त के लिए लोगों का भरोसा लौटा है, लोगों में सच्ची उम्मीद जगी है। सड़क से सरकारी दफ़्तर तक छोटे से लेकर बड़े भ्रष्टाचार का शिकार हुए एक आम आदमी को एक बहुत बड़ी राहत की आस है। लोगों को हौंसला मिला है कि बदलाव के लिए जुटी भीड़ को तो तितर बितर किया जा सकता है पर सोच को नहीं। तत्काल ऐसी उम्मीद करना कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगी, सभी सरकारी बाबू और अफसर ऊपर की कमाई करना बंद कर देंगे, बहुत जल्दबाज़ी होगी। लेकिन हां जिस विरोध ने आम आदमी को राजधानी का राज सौंपा है अगर वो वैसे ही जारी रहे तो बदलाव ज़्यादा दूर नहीं।

एक सच यह भी है कि समस्या गिनाना और समस्याओं को दूर करना दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम की असल लड़ाई तो अब शुरू होगी। सत्ता बदलने के लिए सत्ता में आने की बात करने वाले अरविंद को इस तंत्र को साफ करने के लिए यहां तक पहुंचने से कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी। वो सफल होंगे या नहीं पर कुछ तो बदलेगा ऐसी उम्मीद बांध ही सकते हैं। एक और बात जो याद रखनी पड़ेगी कि देश के रथ की कमान चंद नेताओं को सौंपने के बाद भी उस पर सवार जनता को अपनी आंखें और कान खुले रखने होंगे नहीं तो रथ को किस दिशा में चलना है ये सिर्फ वो सारथी ही तय करने लगेंगे।

                                                

Friday 22 November 2013

चिराग तले अंधेरा



फिर चारों तरफ से नारेबाज़ी शुरू हो गई, फिर से मंच सज गए है, फेसबुक ट्वीटर पर ज्ञान गीत बजने लगे हैं। क्यों भाई..क्यों इतना हंगामा मचा रखा है? मीडिया के ऐसे आसाराम का सच आम लोगों के लिए चौंकाने वाला हो सकता है पर ये बिरादरी (मीडिया) खुद क्यों इतनी भौचक्की हैं? तहलका की महिला पत्रकार के साथ जो कुछ भी हुआ और फिर वो पूरी घटना जिस तरह से सार्वजनिक हुई शायद इसलिए हम यूं रोना पीटना मचा रहे हैं। पर क्या ये सच नहीं कि हर छोटे-बड़े मीडिया संस्थान में इस तरह के टी.टी. ()मौजूद हैं और अक्सर कोई न कोई महिला पत्रकार किसी न किसी तरह के शोषण का शिकार होती है।
खुद को सबसे ज़्यादा प्रगतिशील, निरपेक्ष, सत्यवादी और न्यायवादी मानने वाला समाज का ये वर्ग (मीडिया) आज  सवालों के घेरे में है वो भी अपने ही सहअस्तित्व की अस्मिता की सुरक्षा को लेकर। लेकिन क्या ये सवाल अचानक आ खड़े हुए हैं? नहीं ये तो पहले भी मौजूद थे पर इसे अनदेखा किया जाना भारी भूल साबित हुई।
एक ओर जब जंतर मंतर से लेकर इंडिया गेट तक निर्भया के लिए न्याय की गुहार लगाई जा रही थी और मीडिया उस जनसैलाब की आवाज़ बना था। वहीं दूसरी ओर किसी न्यूज़ रूम में एक अधेड़ उम्र का शख्स अपनी महिला सहकर्मी की नीलेंथ स्कर्ट पर अपनी बिन मांगी राय दे रहा होता है। कभी किसी अच्छी रिपोर्ट पर शाबाशी देने के बहाने किसी महिला रिपोर्टर की पीठ थपथपाना। किसी स्टोरी आइडिया को डिस्कस करने के बहाने घंटों अपने वाहियात चुटकुले सुनाना और न जाने क्या-क्या। ज़्यादातर मीडिया संस्थान में काम करने वाली महिलाओं को इस तरह की घटिया हरकतों से दो चार होना पड़ता हैं, कुछ इनका विरोध करके सामने वाले को चुप करा देती हैं और कुछ चुप रहकर घुटघुट कर काम करती हैं और इस तरह उन घटिया सोच के लोगों को बढ़ावा देती हैं।
एक और ग़लत धारणा है मीडिया में काम कर रहे कुछ पुरूषों की, अगर कोई महिला सहकर्मी सिगरेट और शराब पीती है और सभी से हंसकर बोल लेती है तो फिर कोई भी उसके कैरेक्टर का रचियता बनने लगता है। किसी खूबसूरत लड़की को अच्छा इंक्रीमेंट या प्रमोशन मिलना उसकी काबलियत नहीं बल्कि कुछ और ही समझा जाता है और फिर आफिस में उस लड़की की कहानियां और किस्सें हर कॉफी और चाय की टेबल पर नमक मिर्च लगा कर इस तरह बयां होते हैं जैसे हर कोई उसका सबसे करीबी हो। मीडिया की दुनिया की चकाचौंध में कई अंधेरे कोने यूं ही गुमनाम पड़े हैं जहां की ख़बरें कभी बाहर नहीं आतीं।

जब मैं पत्रिकारिता संस्थान से डिप्लोमा करके बाहर निकली तो मेरी एक दोस्त ने मुझे सलाह दी थी कि ऑफिस में किसी से ज़्यादा हंसकर बात मत करना, ज़्यादा सॉफ्ट मत बनना लोग ग़लत मतलब निकालेगें। बात बात में एक बार मैंने यह भी सुना कि जो लड़कियां न्यूज़रूम में चिल्ला चिल्लाकर बात करती हैं या फिर गाली गलौज करती हैं उनसे कोई कुछ ग़लत करने की कोशिश नहीं करता। अरे भाई खुद के साथ ग़लत होने से रोकने के लिए खुद को ग़लत बनाना ज़रूरी है मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं बल्कि ग़लत के खिलाफ़ बिना परिणाम की परवाह किए आवाज़ उठाई जानी चाहिए।
तहलका की महिला पत्रकार को मेरी बधाई जो उन्होंने चुप रह कर नौकरी छोड़ने की बजाय अपने साथ हुए ग़लत के लिए आवाज़ उठाई है। ये इतना आसान नहीं होता है, बहुत डर सताता है ख़ासकर अगर सामने वाला शख्स आपसे ज़्यादा ताकतवर हो। हिम्मत की बातें करना और हिम्मत दिखाना दोनों के बीच लंबा फासला तय करना होता है। महिला पत्रकार की इस एक आवाज़ से मीडिया में काम करने वाली हज़ारों दूसरी लड़कियों और महिलाओं को रास्ता दिखेगा जो किसी न किसी वजह से अपने साथ हुए ग़लत के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठातीं। इसी के साथ हर नये आंदोलन के अग्रदूत रथ (मीडिया) को अपने पहियों में लगे दीमक को धूप दिखाने पर भी विचार करना होगा।


Wednesday 30 October 2013

पहचान की परिभाषा


मेरी एक मित्र हैं, नारी विमर्श से जुड़े सभी मुद्दों पर उनकी राय बेजोड़ है। पर उनके एक सवाल ने मेरे मन में अनेक सवालों को जन्म दे दिया। उनका कहना था कि हर तरह के फॉर्म में सिर्फ पिता या पति का नाम क्यों पूछा जाता है? माता या पत्नी का क्यों नहीं? उन्हें पिता के नाम पर तो फिर भी कम आपत्ति थी पर पति को वो अपनी पहचान का हिस्सा मानने को बिल्कुल तैयार नहीं, (गौरतलब ये है कि वो शादीशुदा हैं)। उनका तर्क है कि अगर पत्नी के लिए अपने साथ पति की पहचान जोड़ना ज़रूरी है तो फिर पति की पहचान पत्नी के नाम से क्यों नहीं।
ये तो एक उदाहरण था। अब दूसरा सुनिए..मैं ट्रेन से दिल्ली से कानपुर आ रही थी। चेअर कार कंपार्टमेंट में मेरी आगे वाली सीट पर एक महिला यात्री आई...उम्र 30-35 के बीच रही होगी। उनके पास एक बड़ा सा बैग था, जिसे वो ऊपर रखने की कोशिश कर रही थीं, पर उनसे वो बैग उठाया नहीं जा रहा था..तभी उनकी बगल की सीट पर बैठे एक यात्री ने उनकी मदद करने की कोशिश की, पर उस महिला ने मदद लेने से साफ इंकार कर दिया, साथ ही उस आदमी को नसीहत भी दे दी कि औरतों को कमज़ोर मत समझा करों। आखिरकार उन्हें अपना बैग नीचे ही रखना पड़ा और पूरे सफर के दौरान गैलरी से आने जाने वाले यात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़ा।
मैं खुद महिलाओं के विकास और सुरक्षा की समर्थक हूं पर इस तरह पुरूषमुक्त समाज की नहीं। हमें ये क्यों नहीं समझ आता कि स्त्री और पुरुष दोनों ही इस सृष्टि के निर्माण और विकास के बराबर हिस्सेदार हैं, इनमें से कोई भी अकेले 100 फ़ीसदी का अधिकार हासिल नहीं कर सकता और अगर ऐसा करने की कोशिश हुई तो सिर्फ विनाश और विराम ही हाथ लगेगा।
सिर्फ एक फॉर्म में पत्नी या माता का नाम दर्ज हो जाने से सम्पूर्ण नारी जाति को उसकी पहचान नहीं मिल सकती, या फिर किसी पुरूष की मदद ले लेने से किसी स्त्री का कद कतई नहीं घट सकता। हमारे देश के कई इलाक़ों में न तो स्त्री को अपना नाम लिखना आता है न पुरुष को, दिन रात पेट की भूख मिटाने में जुटे ऐसे लोगों को भरपेट भोजन मिलना ही सम्मान पा लेने जैसा लगता है, ऐसे में किसी कागज पर नाम दर्ज करा लेने उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता। रहीं बात औरतों के साथ हो रहे अपराध और अन्याय की तो इसके लिए उन्हें सुरक्षा और उससे भी ज़्यादा आत्मरक्षा के लिए जागरुक बनाना ज़रूरी है। औरत होने के नाते हमें अपने साथ हो रहे हर तरह के अन्याय के लिए आवाज़ उठानी चाहिए और अपने हर अधिकार के लिए लड़ना चाहिए, पर इसके लिए हमें अपने घर और बाहर मौजूद उन पुरूषों को दोयम दर्जे पर बिल्कुल नहीं रखना चाहिए जो हर तरह से हर परिस्थिति में हमारे साथी बने हैं। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि मान लीजिए आप के घर में आग लग जाए और सबकुछ तबाह हो जाए या फिर बाढ़ का पानी आपके बसे बसाए आशियाने को बहाकर ले जाए तो फिर आप क्या करेंगे?? क्या फिर आप जब तक ज़िंदा रहेंगे तब तक आग पर खाना नहीं बनाएंगे? या फिर पानी के बिना जी पाएंगे? ठीक वैसे ही औरतों के साथ हो रहे अन्याय के लिए सिर्फ दोषी पुरूषों से ही नफ़रत की जा सकती है इस धरती पर उनके अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। महिलावादी होना बिल्कुल ग़लत नहीं पर अपनी पहचान के लिए अपने से जुड़े हर रिश्ते को कुर्बान कर देना मेरी समझ से परे है, मैं ग़लत भी हो सकती हूं पर मेरा मानना है कि अगर आप सारे बंधनों से परे अपनी बड़ी पहचान के साथ कितनी भी ऊंचाई पर हो आपके ऑफिस का प्यून, आप का ड्राइवर, आपका धोबी या फिर सब्जी वाला इनमें कोई भी पुरूष हो सकता है और आप अपनी रोजमर्रा की ज़िदंगी में इनकी मौजूदगी चाह कर भी नकार नहीं सकतीं।


Monday 30 September 2013

हिन्दी के चंद दिन


हिन्दी पखवाड़ा बीत गया और साथ ही बीत गई हिन्दी के प्रति सम्मान दिखाने की बाध्यता। अगले बरस फिर से आएगा ये 15 दिनों का त्योहार फिर से सज जाएंगे सरकारी दफ़्तरों और इमारतों पर हिन्दी के सम्मान में कुछ बैनर और बोर्ड। कभी-कभी मुझे लगता है कि हिन्दी पखवाड़े और पितृपक्ष में बड़ी समानता है, दोनों ही पन्द्रह दिनों तक मनाये जाते हैं, हिन्दू धर्म के अनुसार पितृपक्ष में पूर्वजों को याद किया जाता है, उन्हें तृप्ति मिले इसलिए ब्राहमणों को भोज दिया जाता है, उसी तरह सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के दौरान देश का पूरा सरकारी महकमा हिन्दीमय हो जाता है हर तरह सिर्फ हिन्दी के विकास की बातें होती हैं, हिन्दी में तरह तरह की प्रतियोगिताएं और न जाने क्या क्या। मेरा मानना है कि इस तरह हम हिन्दी को मजबूत नहीं बल्कि अपने से दूर कर रहे हैं। पूरे 15 दिनों की श्रद्भांजलि देकर, और श्रद्भांजलि किसे दी जाती है ये तो सभी जानते हैं। हिन्दी को गुज़रा हुआ समझ कर उसे याद करने की ज़रूरत नहीं है, हिन्दी उतनी ही सजीव है जितने हम और आप। जब हम अपने विकास के लिए रोज प्रयास करते हैं, रोज सीखते और बढ़ते हैं तो फिर हिन्दी के लिए सिर्फ 15 दिन क्यों।

कई सरकारी दफ़्तरों में एक तख्ती हमेशा टंगी मिलती है अगर आप हिन्दी का प्रयोग करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी यही तख्ती एक सरकारी दफ़्तर में मैंने अपने साक्षात्कार के दौरान देखी। यही नहीं प्रवेश द्वार से लेकर और साक्षात्कार कक्ष तक कई ऐसी ही हिन्दी के प्रति सम्मान दर्शाती पंक्तियां मुझे पढ़ने को मिलीं, बहुत खुशी भी हुई सोचा कि चलो अब अपनी ही भाषा में साक्षात्कार दूंगी। साक्षात्कार कक्ष में घुसी तो सबसे पहले मुझे अंग्रेजी में यह हिदायत दी गई कि आप हिन्दी का एक शब्द भी इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। बहुत बड़ा धक्का लगा मुझे। भारत में अंग्रेजी शासन तो अपनी आंखों से नहीं देखा था मैंने पर उस दिन पता चल गया कि क्या होता होगा हिन्दी बोलने वाले भारतीयों के साथ। बेमन से साक्षात्कार दिया और बाहर चली आयी मन किया कि वहां हिन्दी की प्रशंसा में लगी सारी तख्तियां उखाड़ कर फेंक दूं पर ऐसा करना मेरे बस में नहीं था फिर जैसी उम्मीद थी मेरा वहां चयन भी नहीं हुआ। सरकारी दफ़्तर ही क्यों हमारे कितने सांसद संसद की कार्यवाही के दौरान हिन्दी में प्रश्नोत्तर करते नज़र आते हैं? मुश्किल से चंद सांसद ही हिन्दी का उपयोग संसद में करते हैं। बाकी जिन्हें हिन्दी आती है वो भी नहीं करते और जिन्हें नहीं आती उनकी तो मजबूरी है।



यह तो बस एक छोटा सा किस्सा था ऐसे न जाने कितने दंश हिन्दी को रोज झेलने पड़ते हैं और ये तब तक जारी रहेगा जब तक हिन्दी रोज़गार की ज़रूरत नहीं बन जाती। बचपन में पढ़ा था आवश्यकता अविष्कार की जननी है अब लगता है आवश्यकता सिर्फ अविष्कार नहीं भाषाओं की भी जननी है। हिन्दी का विकास सिर्फ तख्तियां लगाने, हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाने से संभव नहीं हैं। हिन्दी या किसी भी दूसरी भाषा का विकास सिर्फ उसकी उपयोगिता पर निर्भर है। हिन्दी फिल्में लोकप्रिय क्यों हैं, टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले ज़्यादातर विज्ञापन हिन्दी में क्यों होते हैं क्योंकि वो बाज़ार की ज़रूरत हैं और उनसे निर्माता और निर्देशक मुनाफ़ा कमाते हैं। हिन्दी में फ़िल्में और विज्ञापन बनाना किसी का हिन्दी प्रेम नहीं है बल्कि ये उनका रोज़गार है जिससे उनकी कमाई होती है। अगर मुनाफ़ा बंद हो जाए तो हिन्दी की जगह कोई और भाषा ले लेगी। इसलिए ज़रूरी है कि हिन्दी का रोज़गार की भाषा के रूप में विकास हो। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी पढ़ने और पढ़ाने की व्यवस्था हो। साथ ही ज्ञान और भाषा को एक ही तराजु में तौलनें की प्रक्रिया बंद हो क्योंकि किसी एक ख़ास भाषा का ज्ञान होना एक अलग बात है और ज्ञानी होना अलग।


                                                           

Friday 13 September 2013

मैं हिन्दी हूं




मैं हिन्दी हूं, सिर्फ भाषा नही एक जीवन हूं, जीवनशैली हूं.. पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्षिण तक फैली हूं। हर जाति,धर्म,और भाषा के लोगों के साथ हो ली हूं, किसी की सखा किसी की सहेली हूं। मैं हवा हूं, बादल हूं, परिंदा हूं सिर्फ एक देश नहीं दुनिया के हर कोने में घूमी हूं। मैं हठी नहीं हूं पर आत्मसम्मान मुझे भी है प्यारा। मैं हर परिवेश, महौल और समय में घुलमिल जाती हूं, परिवर्तन सृष्टि का नियम है इसे मैं भी मानती हूं और बदलाव को खुले दिल से मैं भी स्वीकारती हूं।  
मैं हर मां की लोरी में उसके बेटे का दुलार हूं। मैं मंदिर में प्रार्थना, मस्जिद में नमाज़ और गुरूद्वारे की अरदास हूं। प्रेमी के ख़त में प्रेमिका के होठों की मुस्कान हूं। मैं हर चौराहे पर, हर फुटपाथ के कोने पर बैठे बेबस-लाचार की आवाज़ हूं। मैं कई रिश्तों की डोर हूं। कई ग्रंथों की आत्मा हूं। किसी का गर्व तो किसी की जीविका का साधन हूं। मैं सुन्दर हूं, सहज और सरल भी हूं, किसी भी रंग में मैं रंग जाती हूं और जो एक बार मेरे संग हो लेता है मुझमें ही मिल जाता है।
पर कभी कभी मैं भी दुखी और उदास हो जाती हूं। मेरे दुरूपयोग पर बस आंसू बहा कर रह जाती हूं। जब अपशब्दों के तीर किसी को घायल करते हैं तो मेरे भी सीने पर कई शूल मिलते हैं। जब लालच की राजनीति के लिए मुझे भरी सभा में नचाया जाता है तो मैं एक ही दिन में बार बार मरती हूं।

फिर भी मेरे अपनों ने मुझे जिंदा रखा है। मेरे सपनों ने मुझे पंख दिए हैं। मेरा विस्तार निरंतर जारी है, मैं दुनिया पर राज करूं न करूं पर करोंड़ों दिलों की मैं रानी हैं। 

Saturday 7 September 2013

कब बदलेगी सोच?



मेरी पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर एक बड़ा ही अजीब सा तथ्य रखा। उनका (हो सकता है और भी बहुत से लोगों का) मानना है कि लोग लड़कियां इसलिए नही चाहते क्योंकि लड़कियों की इज़्ज़त की सुरक्षा उनको पढ़ाने लिखाने और उनकी शादी करने की ज़िम्मेदारी से कहीं ज़्यादा बड़ी हो गई है। उनकी कही इस बात से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अपने घर परिवार और आस-पास कई बार इस तरह की दलीलें सुन चुकीं हूं।
बहुत ही दुख की बात है कि आज हमारे समाज में महिला अपराध के बारे में जितनी खुल कर बातें हो रहीं हैं, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून कड़े किए जा रहे है, महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और समाज में उनकी हिस्सेदारी को ढोल पीट कर हर मंच पर रखा जा रहा है उतना ही उन्हें इस दुनिया में आने से रोका जा रहा है।
आश्चर्य होता है खुद को ऐसे समाज में देखकर जहां हमारे वजूद को बचाने के लिए हमें रोज एक लड़ाई लड़नी पड़ती है, कभी परिवार से, कभी समाज से।
एक ओर जहां कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कई सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर देश में लिंगानुपात लगातार बिगड़ता जा रहा है। 1000 पुरुषों पर सिर्फ 914 महिलाएं। और सबसे ज़्यादा ये बात हैरान करती है कि गांवों की तुलना में शहरों के पॉश कहे जाने वाले इलाक़ों में अजन्मियों का क़त्ल सबसे ज़्यादा हो रहा है। उन्हीं इलाक़ों में रहने वाले कुछ ख़ास लोग बड़े बड़े सार्वजनिक मंच और न्यूज़ स्टूडियों में संवेदना के कुछ आंसू बहाकर और समस्या का समाधान शिक्षा प्रचार को थमा कर अपना काम पूरा कर देते हैं। मन को कई बार इस बात से आश्वासन दिया कि हो सकता है जैसे जैसे हमारा समाज शिक्षित होगा वैसे वैसे गर्भ में पल रही बच्चियों को भी उनके हिस्से की दुनिया नसीब होगीं, फिर अगले ही पल एक और सवाल ज़ेहन में पैदा हो गया, अगर कन्या भ्रूण हत्या का शिक्षा से कोई लेना देना होता तो पढ़े लिखे डॉक्टर अपने अस्पतालों में इस तरह का पाप न होनें देते और न करते। बात साफ है मुद्दा शिक्षा का नहीं सोच का हैं, और खुली और बड़ी सोच के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं महौल की ज़रूरत होती है।
एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि सिर्फ लड़की होने की वजह से कई बार घर से बाहर अपनी पहचान बनाने से पहले हमें अपनों को ही इम्तिहान देना पड़ता है, उन्हें भरोसा दिलाना पड़ता है कि हम घर, बच्चे, परिवार सब की इच्छाओं और फरमाइशों को पूरा करने के बाद ही कुछ अपने दिल की सुनेगें।
किसी ने राह चलते, भरी बस या भीड़ भरे बाज़ार में हमारे साथ बदसलूकी की और हमने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया तो बहादुरी देने के बजाय कई बार उंगलियां हमारे चरित्र और पहनावे पर ही उठने लगती हैं। कहने में बहुत आसान लगता है कि बलात्कार से जिंदगी ख़त्म नहीं हो जाती, पीड़ित महिला को फिर से पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी ज़िंदगी जीनी चाहिए, कानून और समाज उसके साथ है और न जाने क्या क्या। पर क्या वाकई ऐसा है? और अगर हां तो फिर क्यों बलात्कार की शिकार एक आठ साल की बच्ची को उसके स्कूल से निकाल दिया जाता है? क्यों उनके मजदूर बाप को काम मिलना बंद हो जाता है? क्यों आस-पड़ोस के लोग अपने बच्चों को उस लड़की के साथ खेलने नहीं देते? क्यों हमारा समाज ऐसा बर्ताव उन लोगों के साथ नहीं करता जो इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं? क्यों उन लोगों के खिलाफ़ कड़े कदम नहीं उठाए जाते जो लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मार देते हैं क्यों? क्यों ऐसे डॉक्टर्स को जेल में नहीं डाला जाता जो पैसों की लालच में जल्लाद बनें जा रहे हैं? क्यों?
इन सब सवालों पर हर बड़े मंच पर लगातार बहस जारी है....न जाने कब तक चलती रहेगी...कब ख़त्म होगा ये इंतज़ार और कब मिलेगा लड़कियों को पैदा होने और सम्मान से जीने का पूरा अधिकार ?

-शिखा द्विवेदी 



Friday 9 August 2013

क्या मुझे भी ईदी मिलेगी?



ईद मुबारक, आज सभी गले मिलकर या बिना मिले ही मुबारकबाद बांट रहे हैं। शकील भाई के घर में पक रहे पकवानों की खुशबू पड़ोस में रहने वाले तिवारी जी के बेडरूम तक पहुंच रही है। बच्चों को हर बड़े से ईदी मिल रही है। मुझे बचपन से ईद की जो दो बातें सबसे ज़्यादा लुभाती हैं वो हैं मीठी-मीठी तरह तरह की सेवाइयां और ईदी। कई बार ईद पर अपनी दोस्त बुशरा के घर गई सेवइयां खाने..और उसके अब्बू अम्मी ने मुझे ईदी भी दी।
इस बार की ईद पर मैं बहुत से लोगों से ईदी लेना चाहती हूं लिस्ट बड़ी लंबी है..पर अगर कुछ लोगों से ही मिल जाए तो मेरी तिज़ोरी भर जाएगी।

सबसे पहले तो मैं अपने नेताओं से मौनव्रत रखने को कहना चाहती हूं जिससे उनके मुंह से निकलने वाले विषैले शब्दबाणों से जो प्रदूषण फैल रहा है वो कंट्रोल हो और जनता चैन की सांस ले सके।

दूसरी ईदी मुझे अपने प्रधानमंत्री जी से चाहिए वो ये है कि कृपया आप अपना मौनव्रत तोड़ दे, आपके उपवास से जिन्हें जो फायदा उठाना था उठा चुके अब अपनी विशेषज्ञता दिखाइये और रुपये को उठाइये।

तीसरी ईदी मुझे ऑटो रिक्शावालों से चाहिए जिन्होंने ऑटोरिक्शा खरीदा तो है चलाने के लिए पर अक्सर कहीं जाने को तैयार नहीं होते, अरे भाइयों अगर कहीं जाना नहीं तो घर जाकर आराम करों और सड़क पर क्यों लोगों का वक्त ज़ाया करते हो और बीपी बढ़ाते हो।

चौथी ईदी, ये तो सबसे ख़ास लोग हैं अक्सर हर लड़की से टकरा जाते हैं, सड़क, बस, ट्रेन हो या ऑफिस इन्हें हर लड़की अपनी ज़ागीर लगती है जब चाहा जहां चाहा अपनी दिमागी कंगाली का पिटारा खोल देते हैं, ऐसे सभी लोगों से विनम्र निवेदन हैं कि जब भी इस तरह की हरकत के लिए तन मन फड़फड़ाए तो फौरन खुद को जन्म देने वाली उस औरत को याद कर लेना और सोचना कि क्या उसके साथ ऐसा कर सकते हो।

पांचवी ईदी मुझे अपने इस प्रगतिशील समाज से चाहिए जो रोज नए मुकाम हासिल कर रहा है पर तरक्की की दौड़ में हमारा धैर्य, सहनशीलता, संतोष,प्रेम, और विश्वास ये सब रास्ते में कहीं गिरते गए और हम इन्हें रौंदते आगे बढ़ते जा रहे हैं..ज़रा रुकिए हर बार पीछे मुड़कर देखने से नुकसान नहीं होता..तो रूकिए पीछे मुड़िए और और अपने बिखरे पड़े जज़्बातों को समेटकर फिर से हरा करिए..शर्त लगाती हूं अगली ईद में दिल से सच्ची मुबारकबाद निकलेगी।

पता नहीं मुझे ये ईदी मिलेगी या नहीं? पर आप अपनी ईदी संभालकर रखिएगा क्योंकि इसमें अपनों की सच्ची दुआएं होतीं हैं बिना कोई मिलावट।


एक बार फिर ईद मुबारक!

Thursday 18 July 2013

रिश्ते


रिश्ते

बंधन है या मुक्ति है.

जिज्ञासा है या तृप्ति है।

भावनाओं की नाज़ुक कश्ती है

या, जीवन की सिर्फ अभिव्यक्ति है।

कुछ सच्चा है, कुछ झूठा है,

कोई खुश है, तो कोई रूठा है।

कुछ बातें है, कुछ यादें हैं,

कुछ जाते, तो कुछ आते हैं।

जीवन के पहले दिन से ही ये साथ हमारा देते हैं,

बस रूप नया ले लेते हैं, और नाम नया रख लेते हैं।

कोशिश करने से भी इनसे दूर नहीं जा पाते हैं,

हर राह की हर एक मोड़ पर इन्हें पास खड़ा हुआ पाते हैं।

एक नाज़ुक सी डोर है ये, पर नहीं कहीं कमज़ोर है ये,

नज़र न आए हमको ये पर जकड़े हुए हैं मन को ये।


                                                    

Tuesday 9 July 2013

फिर हो गया प्यार

संडे की सुबह … घड़ी की टिकटिक नौ बजा रही है...सूरज की रोशनी पर्दों को चीरती हुई पूरे कमरे में फैल गई थी..पर रेवती चादर तान कर अभी तक सो रही थी..उसकी रूममेट कल्पना ने खिड़कियों से पर्दे हटा दिए, फ़ुल वॉल्यूम पर रेडियो चला दिया..पर रेवती शायद कानों में रूई डाल कर सो रही थी..कल्पना ने उसकी चादर खींचते हुए फिर से एक कोशिश की..अरे उठ जा कुम्भकर्ण..कब तक सोएगी..लैंडलॉड को किराया देने जाना है..पर रेवती की नींद में कोई ख़लल नहीं.. तभी रेवती का मोबाइल बज उठा....मोबाइल की घंटी से रेवती की नींद छूमंतर हो गई वो झट से उठी और चादर के नीचे दबा मोबाइल उठाकर बालकनी की तरफ दौड़ी। कमरे में अक्सर नेटवर्क प्रोब्लम रहती है..और जब फ़ोन अभय का हो तब तो रेवती को कोई भी डिस्टर्बेंस नहीं चाहिए...बालकनी में पहुंचकर चहकते हुए रेवती ने फ़ोन उठाया आज सुबह सुबह याद आ गई ।..दूसरी तरफ से अभय की अलसाई हुई आवाज़ आई-सुबह क्या तुम्हारी याद में तो रातभर नहीं सो सका..ना जाने क्यों आज बहुत याद आ रही हो.. बस सुबह होने का इंतज़ार कर रहा था कि कब सुबह हो और तुम्हें फ़ोन करूंअच्छा अब जल्दी से बताओ कहा मिल रही हो” - अभय ने रेवती के कुछ और कहने से पहले अपने दिल की सारी बात कह दी। अपने लिए अभय की बेचैनी देखकर रेवती थोड़ा शरमा गई...हाथों से बालकनी की रेलिंग पर पड़ी ओस की बूंदों को नीचे गिराते...अपनी जुल्फों को कान के पीछे दबाते हुए  बस अभय की बातें सुने जा रही थी..अपनी तारीफ़ सुनना किसे पसंद नहीं..और जब तारीफ़ कोई अपना चाहने वाला करें..तब तो बस यहीं दिल करता है कि ये वक्त यहीं थम जाए...। रेवती की तरफ से कोई जवाब न मिलने पर अभय ने चिल्लाकर कहा अरे कुछ बोलों तो.... रेवती तब शायद पूरी तरह नींद से जागी ...हां..हां..सुन रही हो...और अगर इसी तरह मेरी तारीफ़ करते रहो तो ज़िंदगी भर तुम्हारी बातें सुनने को तैयार हूं दोनों की ये प्यारभरी बातें 20 मिनट तक चलती रही...दोनों ने दोपहर दो बजे अंसल प्लाज़ा में मिलने का तय किया। रेवती बालकनी से अंदर आते ही सीधे नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई। बाथरूम से ही कल्पना को आवाज़ लगाकर बता दिया कि वो अभय से मिलने जा रही है..। मुझे पता था कि मैडम की सवारी संडे को बस एक ही तरफ चल देती है..पर अंकल को मकान का किराया देने जाना है उसका क्या कल्पना टी.वी के सामने से उठी...अपनी चाय का कप टेबल पर रखा और बाथरूम के दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गई। कल्पना पिछले एक साल से रेवती की रूममेट है.. और अक्सर घर के सारे काम उसी के ज़िम्मे आते हैं..क्योंकि रेवती जब घर में होती है..तब फ़ोन पर अभय के साथ बिज़ी रहती है..और छुट्टी के दिन भी उसे अभय से मिलने बाहर जाना होता है....हर बार की तरह इस बार भी रेवती ने अपनी प्यारी बातों से कल्पना को मना ही लिया...थैंक्यू यार थैंक्यू सो मचतू सच में बहुत प्यारी हैरेवती ने कल्पना को गले लगा लिया..फिर जल्दी से तैयार होने अपने कमरे में चली गई..कौन से कपड़े पहनूं..बाल कैसे बनाऊं..इसी उधेड़बुन में अलमारी के सारे कपड़े बेड पर बिखेर दिए..पूरे 20 मिनट लगाकर तय किया कि नीले रंग का सूट पहनकर जाना है..नीला अभय का पसंदीदा रंग जो है..और रेवती के पास सबसे ज़्यादा कपड़े शायद नीले रंग के ही हैं। नज़र घड़ी पर पड़ी तो उसने उंगली दांतों में दबा ली..हमेंशा की तरह इस बार भी वो लेट हो गई। फटाफट चप्पलें पहनी और निकल पड़ी... मिलने की बेताबी ऐसी कि चप्पलें भी अलग अलग रंग की पहन ली थी वो तो अच्छा हुआ जो कल्पना ने ठोक दिया। उधर अभय भी पूरी तैयारी के साथ निकला..रेवती के पसंदीदा पिंक रोज़ेज़ और चाकलेट्स के साथ।... आज दोनों एक दूसरे को देखे बिना दो दिन नहीं बिता सकते पर पांच साल पहले एक दूसरे से बिल्कुल अंजान थे..हां..उनके बीच दो चीज़े कॉमन थी..एक तो उनका इंजीनियरिंग कॉलेज और दूसरा ये कि दोनों इलाहाबाद से थे। कॉलेज में हज़ारों की भीड़...पर फिर भी दोनों को एक दूसरे का साथ अपना सा लगता था..कॉलेज के चार सालों में दोनों अच्छे दोस्त बने और कॉलेज के बाद ज़िदंगी भर एक दूसरे का साथ निभाने का वादा भी कर लिया।
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अंसल प्लाज़ा के बसस्टॉप पर खड़ा अभय कभी घड़ी की ओर देखता और कभी सामने से गुजरते ट्रैफिक को, तभी रेवती का ऑटोरिक्शा आकर रूका। रेवती हमेशा की तरह इस बार भी लेट थी..पर उसके खूबसूरत चेहरे पर मासूम हंसी देखकर अभय कुछ न कह सका। पास आते ही अभय ने रेवती का हाथ थाम लिया..ये क्या कर रहे हो”? -रेवती ने तुरंत हाथ पीछे खींचते हुए कहा, अरे सड़क पार नहीं करना क्या..तुम्हें डर लगता है न इसलिए पकड़ा अभय के जवाब से रेवती थोड़ा शरमा गई। दोनों सड़क पार करके अंसल प्लाज़ा गए और वहां एक रेस्टोरेंट में लंच ऑडर किया। आस-पास बैठे लोगों से बिल्कुल अंजान दोनों बस एक दूसरे की आंखों में खोए थे...अच्छा शादी कब करना हैअचानक अभय ने रेवती के सामने एक प्रस्ताव रखा। रेवती ने शायद अभी इस सवाल की उम्मीद नहीं की थी..खाते खाते उसे खांसी आ गई..क्या कहा तुमनेपानी के ग्लास से एक घूट अंदर करते हुए रेवती ने पूछा।  वही जो तुमने सुना..अभय ने अपना चम्मच प्लेट में रखते हुए कहा। देखो शादी तो करनी ही है हमें..इसमें जल्दी और देर क्या फिर इस तरह मिलने के लिए संडे की छुट्टी का इंतज़ार तो नहीं करना होगा..फिर तो हर सुबह उठने के बाद और रात में सोने से पहले तुम्हारा चेहरा सामने होगाअभय ने रेवती की आंखों में झांकते हुए कहा। पर अभय शादी कब करना है..कैसे करना है ये सब तय करने के लिए हमें घरवालों से बात करनी होगी..यूं ही अचानक हम कैसे सबकुछ डिसाइड कर सकते हैं..रेवती थोड़ा परेशान हो गई थी।रेवती की बातें सुनकर अभय उठा और सीधे रेस्टोरेंट से बाहर निकल गया..रेवती घबरागई..उसे लगा शायद अभय नाराज़ हो गया है..वो खुद को कोसने लगी कि आखिर इतना कुछ कहने की क्या ज़रूरत थी..रेवती ने बिना वक्त गंवाए मोबाइल उठाकर अभय को फ़ोन लगाया..सोचा सॉरी बोल दूंगी...तभी अभय वापस अंदर आते हुए दिखा। पर अभय के साथ कुछ और लोग भी थे..रेवती और अभय के मम्मी पापा। अभय ने रेवती को बिना बताए उसके और अपने पैरेंट्स को दिल्ली बुला लिया थी...रेवती को सरप्राइज़ देने के लिए..। अपने मम्मी-पापा को सामने पाकर रेवती छोटे बच्चों की तरह उछलने लगी..पर अगले ही पल नज़र अभय के पैरेंट्स पर गई तो खुद पर काबू कर उन्हें नमस्ते किया। दोनों परिवारों ने साथ बैठकर खाना खाया..फिर आखिरकार मि. तिवारी यानी रेवती के पापा ने उनके दिल्ली आने का मकसद बता ही दिया। बेटा हमने तुम दोनों की शादी की तारीख तय कर दी हैरेवती के पापा ने रेवती की ओर देखकर कहा। अगले महीने की 12 तारीख कोरेवती की मां ने आगे जोड़ दिया। रेवती को अब समझ आया कि अभय ने अचानक शादी की बात क्यों छेड़ी थी। बेटा जब दोनों ने साथ रहने का फैसला कर ही लिया है..तो अब शादी भी कर लो..और फिर हमें भी ये फिक्र नहीं सताइये कि तुम दिल्ली में अकेली रह रही हो..अभय तुम्हारे साथ होगा तो हम भी इलाहाबाद में चैन से रह सकेंगें रेवती के पापा ने पानी का गिलास रखते हुए कहा। परिवारवालों ने दोनों के बीच की सारी दूरियां कम कर दी...दोनों ने सभी से नज़रे चुराकर एक दूसरे की आंखों में शादी के हज़ार सपने बसा दिए...एक छोटा सा घर..प्यार करने वाले दो दिल..और ढ़ेर सारी मोहब्बत।
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अभय और रेवती शादी के बंधन में बंध गए...रेवती मिस तिवारी से मिसेज चतुर्वेदी बन गई थी..लेकिन उसे अपना सरनेम बहुत प्यारा था इसलिए उसने अभय से पहले ही कह दिया था कि वो शादी के बाद भी अपना सरनेम नहीं बदलेगी। अभय को इसमें कोई एतराज़ नहीं था। दोनों की शादीशुदा ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ रही थी। रेवती ने शादी के कुछ महीनों बाद अपनी इंजीनियरिंग की जॉब से कुछ समय के लिए ब्रेक ले लिया...वो एमटेक करना चाहती थी...अभय ने भी उसका साथ दिया। उसे पूरा भरोसा दिलाया कि वो बिना किसी टेंशन के अपनी पढ़ाई करे..वो उसकी हर मदद करेगा..रेवती बहुत खुश थी उसे ऐसा जीवन साथी मिला जिसने उसके सपने को अपना सपना बना लिया और जो उसे बहुत प्यार करता है..रेवती घर पर अपने सपनों को पूरा करने में लग गई..और अभय ऑफिस के अपने काम में व्यस्त। एक दिन सुबह अभय ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था। रेवती किचन से चाय का कप और प्लेट में ब्रेड बटर लेकर आई...। ब्रेड बटर देखकर अभय का मूड ख़राब हो गया..यार प्लीज़ अब नहीं..रोज़..रोज़ ब्रेड बटर..तुम्हें पता है न मुझे ब्रेड बिल्कुल पसंद नहीं..फिर क्यों पिछले चार दिनों से तुम मुझे यही खिला रही हो। उधर गीला तौलिया बेड पर पड़ा देखकर रेवती का मूड ख़राब हो गया..अभय मुझे अपनी कोचिंग क्लासेस जाना है..इसलिए जल्दी में बस यही बना सकती हूं..पर तुमने ये गीला तौलिया यहां क्यों रखा हैगुस्से में रेवती ने गीला तौलिया उठाया और बालकनी में फैलाने चली गई। अभय तैयार होकर ऑफिस चला गया और रेवती कोचिंग क्लासेस। अब अक्सर सुबह अभय और रेवती के बीच खट्ठी मीठी तकरार होने लगी पर ये तकरार कब कड़वी होने लगी इसका पता उन दोनों को भी नहीं चला।..... संडे की सुबह अभय सोफे पर बैठकर अखबार के पन्ने पलट रहा था और पास ही दीवान पर बैठी रेवती अपनी किताब के। अभय मुझे पांच हज़ार रूपये चाहिए बुक्स खरीदनी है.रेवती ने अपनी किताब रखते हुए कहा।.... पर अभी पिछले महीने ही तो दस हज़ार रूपये बुक्स के लिए तुम्हें दिए थे तुम्हेंअभय ने अखबार के पीछे से झांकते हुए कहा...रेवती को अभय का ऐसा पूछना अच्छा नहीं लगा..उसे लगा अभय उसकी पढ़ाई के खर्च का हिसाब मांग रहा है..पर फिर भी बिना नाराज़ हुए उसने अभय को बताया कि वो पैसे उसने अपनी फ़ीस में दे दिए...।. ओह हो..तुम्हारी पढ़ाई का खर्च..फिर घर के खर्चे..इलाहाबाद से पापा का भी फ़ोन आया था..कुछ पैसे भेजने हैं..कैसे होगा सब..बड़बड़ाते हुए अभय बेडरूम में गया..रेवती भी अभय के पीछे पीछे गई..अभय ने अलमारी से पैसे निकालकर रेवती के हाथ में थमा दिए, देखो रेवू..अब अगर और पैसों की ज़रूरत हो तो तुम्हें अपनी सेविंग्स से निकालने होंगे..मेरी इस महीने की सेलरी अब खत्म हो गई..और अभी तो महीना ख़त्म होने में दस दिन बाकी है। रेवती ने अभय की बातों को अनसुना कर दिया..और वापस ड्रॉइंगरूम में आकर अपनी किताबों में उलझ गई। अभय तैयार होकर बाहर जाने लगे..रेवती से भी साथ चलने को कहा..पर रेवती ने मना कर दिया..उसे कोचिंग में होने वाले टेस्ट की तैयारी करनी थी...अभय को थोड़ा बुरा लगा..उसने जता भी दिया कि अब रेवती के पास उसके लिए बिल्कुल वक्त नहीं है..और दरवाज़ा खोलकर बाहर चला गया। दो प्यार करने वालों के बीच शादी के बाद अक्सर बहुत कुछ बदलता है..पर बदलने को न अभय तैयार था..न रेवती ।
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अभय और रेवती की पहली एनिवर्सिरी भी आ गई...रेवती बहुत खुश थी..अभय को सरप्राइज़ देने के लिए बहुत सी तैयारी की थी उसने...अभय के लिए अपने हाथों से एनिवर्सरी कार्ड बनाया..सुंदर सा बुके लाई..और एक गिफ़्ट भी...पूरे घर की साफ सफाई की, नए पर्दे..नई चादरें..फूलदान में महकते फूल..अभय की पसंदीदा जलेबियां भी बनाई थी। अभय देर रात ऑफिस से आया पर उसने उन चीज़ों की तरफ देखा तक नहीं..कपड़े बदले और आराम से लेट गया..रेवती अभय के पास आकर बैठ गई..बड़े प्यार से अभय के माथे पर हाथ फेरा..पर अभय ने तुरंत उसका हाथ दूर कर दिया..बड़ा अजीब था रेवती के लिए ये सब..वो समझ नहीं पा रही थी कि आखिर अभय ऐसा क्यों कर रहा है..वो उससे नाराज़ है..या फिर उसे याद ही नहीं कि कल हमारी शादी का एक साल पूरा होने जा रहा है..रेवती के मन में सवालों का तूफान था..और आंखों में आंसुओं का एक शांत समंदर...उसने एक बार फिर से कोशिश की अभय के करीब जाने की..तुमने मुझे विश नही किया..भूल गए न..कल हमारी एनिवर्सिरी है ... रेवती ने अभय को जगाने की कोशिश की...हटो यार एनिवर्सिरी कल है न..तो फिर आज तो चैन से सोने दो..अभय ने रेवती को झिड़क दिया..रेवती की आंखों का शांत समंदर अब बह निकला..उसने फिर कुछ भी नहीं कहा चुपचाप अभय के बगल में आकर लेट गई..पर सो नहीं पाई वो उस रात...
..अगली सुबह रेवती अभय से पहले उठी..संडे का दिन अभय का वीकली ऑफ..इसलिए वो आराम से सोता रहा...रेवती ने नहाकर भगवान की पूजा की और चाय का कप लेकर ड्रॉइंगरूम में जाकर सोफे पर बैठ गई...अभय मुंहहाथ धोकर वहां पहुंचा और न्यूज़ पेपर लेकर बैठ गया..टीवी चलाई और न्यूज़ चैनल देखने लगा...तभी उसके दोस्त संजय का फोन आया वो बरेली से दिल्ली आया हुआ था..संजय ने अभय से मिलने को कहा और अभय ने भी बिना देरी के हां कह दी। संजय से बात ख़त्म करके जब अभय ने रेवती की ओर देखा तो..उसकी आंखें हज़ार सवालों के साथ अभय को घूर रही थी.. अभय ने रेवती से नज़रे चुराने में ही भलाई समझी..रेवती को देखे बिना ही अलमारी से कपड़े निकालने लगा..देखो जानू..अब संजय को हां कर दी है तो जाना ही पड़ेगा..वो आज रात ही वापस जा रहा है..मैं बस दो घंटे में लौट आऊंगा..तुम तैयार रहना..हम डिनर के लिए बाहर चलेंगे..फिर तुम्हारे लिए कोई अच्छी सी गिफ़्ट भी तो लेनी हैअभय ने सारी प्लानिंग बता दी..पर रेवती ने कुछ नहीं कहा..वो चुप थी..अभय संजय से मिलने चला गया।..शाम से रात हो गई..पर अभी तक अभय वापस नहीं आया..रात आठ बजे डोर बेल बजी..तो रेवती ने दरवाज़ा खोल दिया..दरवाजे पर अभय था..तुम तैयार नहीं हुई..? अभय ने रेवती को देखते ही पूछा मुझे कहीं नहीं जाना है..रेवती ये कहते हुए अंदर आ गई।
अभय भी रेवती के पीछे पीछे गया..उसे मनाने के लिए..पर बहुत देर हो चुकी थी पिछली रात से शांत पड़ा रेवती के गुस्से का ज़्वालामुखी फट पड़ा।
मैं कोई ऑफिशियल मीटिंग नहीं हूं जिसे निपटाना ज़रूरी है..मैं तुम्हारी बीवी हूं अभय..मुझे तुम्हारा वक्त चाहिए..केयर चाहिए..रेवती ने बेडरूम में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
अभय देर तक दरवाज़ा थपथपाता रहा..पर दरवाज़ा नहीं खुला..अब बहुत हुआ रेवू..तुम्हें बुरा क्यों लग रहा है..तुम्हारे पास भी तो मेरे लिए वक्त कहॉं हैअभय ने रूठी हुई रेवती को मनाने की ज़्यादा कोशिश नहीं की..लाइट्स ऑफ की..और वहीं ड्रॉइंगरूम के सोफे पर सो गया। रेवती को लगा कि अभय सिर्फ उसे ही दोषी ठहरा रहा है..क्या वाकई ग़लती उसकी है..या अभय जानबूझ कर ऐसा कर रहा है..इसी उधेड़बुन में...रेवती रात भर कमरे के दरवाजे के पास बैठी रही..आंखों से आंसू बहते रहे...सबकुछ पहले जैसा होगा या नहीं..ये सवाल रेवती के दिल और दिमाग में घूमता रहा। सुबह तो होगी पर क्या वो फिर से पहले जैसी खूबसूरत होगी...
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दो महीने बीत गए..आज रेवती बहुत खुश थी...बात ही खुशी की थी रेवती मां बनने वाली है..और उसे आज ही इसका पता चला...वो अभय के ऑफिस से आने का इंतज़ार करने लगी..फिर सोचा शाम तक नहीं रूक सकती..अभय को अभी ये खुशखबरी सुना देती हूं..रेवती ने अभय को फ़ोन किया..बड़े दिनों बाद ऑफिस में रेवती का फ़ोन देख अभय थोड़ा घबरा गया..क्या हुआ..कोई प्रॉबलम है”? अभय ने फ़ोन उठाते ही पूछा। अभय तुम पापा बनने वाले हो..रेवती ने बिना वक्त गंवाए..अभय को खुशख़बरी सुना दी...। अभय को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ..खुशी से चिल्ला उठा वो..ऑफिस के सारे लोग उसकी तरफ देखने लगे रेवू मैं बता नहीं सकता मैं कितना खुश हूं..अभी घर आता हूं मैं.. अभय ने ऑफिस से छुट्टी ली..और फिर ढ़ेरों खिलौने और मिठाई लेकर घर पहुंच गया। दरवाजा खुलते ही रेवती को गोद में उठाकर झूमने लगा अभय.. थैंक्यू सो मच रेवू..मुझे इतनी बड़ी खुशी देने के लिए...अभय ने रेवती का माथा चूमा और उसे बाहों में भर लिया..। अभय को अब हर वक्त रेवती की फिक्र रहती थी..उसका खाना-पीना..रेगुलर चेकअप्स..टेस्ट..। तीन महीने बीत गए..रेवती को अक्सर दिक्कत रहती थी..कभी जी मिचलाना..कभी चक्कर...कभी उल्टियां..।अभय ने तय किया कि कुछ दिनों के लिए वो रेवती को इलाहाबाद अपनी फैमिली के पास छोड़ आएगा..जिससे उसकी अच्छी देखभाल हो सके..पर रेवती जाने के लिए तैयार नहीं हुई..वो अभय के साथ ही रहना चाहती थी। उस दिन अभय की नाइट शिफ़्ट थी....वो बेडरूम में तैयार हो रहा है..तभी बिल्कुल पस्त हालत में रेवती बाथरूम से बाहर आई..और सीधे बिस्तर पर लेट गई..शाम से तीसरी बार उसे उल्टी हुई थी...
क्या हुआ...फिर से उल्टी? अभय ने अलमारी से अपने मोजे निकालते हुए पूछा।
 “आज रूक नहीं सकते... (रेवती ने बड़ी हिम्मत करके अभय से पूछा...)
बिल्कुल नहीं..यार वहीं बातें कहा करो..जो पॉसिबल हो..रोज रोज ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल सकती... तुमसे कितनी बार कह चुका हूं कि इलाहाबाद चली जाओ..वहां तुम्हारी फैमिली भी है और मेरी भी सब तुम्हारा ख्याल रख लेगें..पर तुम यहीं रहना चाहती हो। अब जब फैसला तुम्हारा है तो हिम्मत तो दिखानी ही होगी।... अच्छा जब थोड़ा ठीक लगे तो दरवाज़ा बंद कर लेना अभय ने बाहर निकलते हुए कहा।
रेवती ने अभय को कोई जवाब नहीं दिया बस मन में बुदबुदाया कि इस वक्त सबसे ज़रूरी साथ तुम्हारा है अभय....सिर्फ तुम्हारा। कुछ देर बाद रेवती ने उठकर दरवाज़ा बंद किया.. सोने की कोशिश करने लगी..बार-बार अपने मोबाइल की तरफ देखती..शायद अभय फोन करे और तबियत पूछे...न जाने कब उसकी आंख लग गई और वो सो गई...सुबह कामवाली बाई ने जब डोर बेल बजाई तो उसकी आंख खुली..सबसे पहले अपना मोबइल उठा कर देखा..पर न कोई मैसेज..न मिस्ड कॉल..दरवाज़ा खोलकर ड्रॉइंग रूम में आकर सोफे पर बैठ गई रेवती
क्या हुआ दीदी..तबियत ठीक नहीं है क्या आपकीमीनू ने डाइनिंग टेबल से जूठे बर्तन हटाते हुए पूछा।
रेवती ने बस हां में सिर हिला दिया।
और भइया..ऑफिस चले गएमीनू ने हमदर्दी जताते हुए पूछा।
रेवती ने फिर से हां में सिर हिला दिया और मीनू को नाश्ते में पोहा बनाने का टेबल पर फैले न्यूज़पेपर समेटने लगी..रेवती ने देखा अभय कल रात अपना मोबाइल घर पर ही भूल गया था..न्यूज़पेपर्स के नीचे दबा पड़ा था। रेवती को खुद पर बहुत गुस्सा आया..मोबाइल यहीं है तो अभय मुझे फ़ोन या मैसेज कैसे करता..रेवती ने खुद को समझाया। रेवती वहीं सोफे पर बैठ गई..और अभय का मोबाइल ऑन करके..उसके मैसेजेस चेक करने लगी...उसे पता है कि किसी का फ़ोन देखना ग़लत है..पर एक पत्नी का मन उस पर हावी था।..मोबाइल के ड्राफ्ट बॉक्स में बहुत से अनसेंड मैसेजेस पड़े थे...सारे मैसेज अभय ने रेवती के लिए टाइप किए थे...रेवती ने एक मैसेज पढ़ा.. रेवू मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र है..मैं एक भी मिनट तुम्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहता..पर नौकरी भी नहीं छोड़ सकता..आजकल ऑफिस में बहुत प्रॉबलम चल रही है..थोड़ी सी लापरवाही दिखाने पर नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है...और मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता क्योंकि मेरी नौकरी से ही तुम्हारा और हमारे आने वाले बच्चे का फ़्यूचर जुड़ा है। क्या करू..तुम्हारी ठीक से देखभाल भी नहीं कर पा रहा। मैसेज पढ़कर रेवती की आंखों में आंसू भर आए..पर मीनू सामने काम कर रही थी..इसलिए उसने खुद पर काबू किया...मन ही मन सोचा कि अभय पर उसका भरोसा कम कैसे हो गया..प्यार तो रिश्तों को मजबूत करता है..फिर मेरा प्यार...इतना कमज़ोर कैसे पड़ गए... 
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मीनू अपना काम करके चली गई...रेवती ने अभय की मां को फ़ोन किया और बताया कि वो इलाहाबाद आना चाहती है.. रेवती के अचानक आने की बाद सुनकर मिसेज चतुर्वेदी थोड़ा घबराई..पर रेवती ने उन्हें समझा दिया कि वो दिल्ली में अकेले बोर हो रही है..इसलिए कुछ दिनों के लिए परिवार वालों के साथ रहना चाहती है...अभय ऑफिस से घर वापस आया तो रेवती बैग पैक करने में बिज़ी थी..अरे ये तुम सामान क्यों पैक कर रही होअभय ने कमरे में घुसते ही पूछा घर जा रही हूं मैं...रेवती ने बैग में कपड़े रखते हुए जवाब दिया। अचानक क्यों..अच्छा..कल रात की बात से नाराज़ होअभय ने रेवती के गले में हाथ डालते हुए पूछा।नहीं..ऐसी कोई बात नही हैं..बस कुछ दिनों के लिए जा रही हूं..फिर वापस आ जाऊंगी। अभय ने रेवती को जाने से रोकने की कोशिश की..फिर उसे लगा शायद रेवती परिवार वालों को याद कर रही है..इसलिए वो मान गया। दो दिन बाद अभय का भाई आया और रेवती उसके साथ इलाहाबाद चली गई..रेवती को स्टेशन छोड़ कर अभय वापस घर आ गया..पानी पीने के लिए डाइनिंग टेबल पर रखा पानी का जग उठाया तो उसे जग के नीचे रखा एक ख़त मिला..ख़त रेवती ने जाने से पहले लिखा था..अभय, सबसे पहले तो सॉरी..उन सभी बातों के लिए जिसकी वजह से तुम्हारा दिल दुखा..अभय शादी के बाद मैंने सिर्फ अपने सपनों के बारे में सोचा..तुम्हारी मुझसे क्या उम्मीदें हैं इस बारे में तो सोचा ही नहीं..शादी के बाद बहुत कुछ बदल जाता है..पर मैने बदलने की कोई कोशिश नहीं की..बिना जाने समझे बस तुम्हें ही दोष देती रही..पर आज तुम्हारे मोबाइल ने मुझसे वो सब कुछ कह डाला..जो तुम नहीं कह सके। अभय एक बार अपने दिल की बात कहने की कोशिश तो करते तुम...तुम्हारी रेवू तुम्हें कमज़ोर पड़ते नहीं देखना चाहती.. मैं आज भी तुमसे बहुत प्यार करती हूं..। तुम्हारी रेवू।
रेवती का ख़त पढ़कर अभय की आंखे झलक आई..उसने तुरंत रेवती को फ़ोन किया  कि वो कल ही उसे वापस लेने इलाहाबाद आ रहा है..। रेवती ने अभय को समझाया कि वो कुछ दिनों में खुद ही वापस आ जाएगी..इस वक्त अभय को सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना चाहिए..और उसके इलाहाबाद जाने की वजह भी यही है कि ताकि उसके चक्कर में अभय को ऑफिस से कोई दिक्कत न हो..और वो मन लगाकर काम कर सके। अभय मान गया फिर एक दबी हुई आवाज़ में कहा.. .मैं..मैं ..तुमसे माफ़ी मांगना चाहता हूं रेवू..। माफ़ी किस बात के लिए..रेवती ने पूछा ..वो..वो मैं तुम्हारे लिए एनिवर्सिरी पर गुलाब का फूल लाना भूल गया था उस बात के लिए..पर सच बताऊं...मैं भूला नहीं था..मैने बुके खरीदा भी था..बाइक पर रख कर...कार्ड गैलरी से कार्ड लेने गया तो..गैलरी बंद हो चुकी थी..और वापस आया तो..तो सारे फूल एक गाय खा चुकी थी क्या???? रेवती ज़ोरदार ठहाका लगाकर हंसने लगी..। बहुत दिनों बाद अभय ने रेवती की खिलखिलाती हंसी सुनी थी...और उसी वक्त खुद से वादा भी कर लिया कि अब कभी इस हंसी को गुम नहीं होने देगा।...एक बार फिर से दोनों को एक दूसरे से सच्चा प्यार हो गया था।









Sunday 7 July 2013

बड़े पर्दों के पीछे छोटे काम



राजनीति,सिनेमा या फिर बड़े औद्योगिक घराने, यहां के बड़े महलों की मजबूत दीवारों के पीछे कई कमज़ोर लोग अपनी ताकत अक्कर घर की औरतों पर दिखाते हैं पर वो चीखें, वो दर्द वहां की शानोशौकत के पर्दों के पीछे ही कहीं खो जाते है।

और जब कभी पर्दों के पीछे से झांकता सच दुनिया को नज़र आ जाता है तब भी लोग इसे समस्या नहीं च
टपटी गॉशिप मानते हैं और बड़े ही शान से खबरिया चैनलों के इंटरटेनमेंट शोज़ में मसाला परोसा जाता है। 

हाल ही में युक्ता मुखी ने मुंबई के अंबोली पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाई अपने पति प्रिंस टुली के खिलाफ़। रिपोर्ट में युक्ता ने कहा कि उनका पति उनके साथ आए दिन मारपीट करता है और दहेज के लिए प्रताड़ित करता है। युक्ता मुखी ने पिछले साल जुलाई में भी इस तरह की शिकायत दर्ज कराई थी।

अगर आपको याद हो तो राहुल महाजन की पहली पत्नी श्वेता ने भी कुछ इस तरह की शिकायत दर्ज कराई थी, जिसके बाद दोनों में तलाक हो गया। हालांकि तलाक के बाद राहुल ने बकायदा एक मनोरंजन चैनल पर स्वयंवर रचाकर डिंपी से शादी कर ली। शादी के बाद फिर से ख़बरे आई की डिंपी ने भी राहुल पर मारपीट करने का आरोप लगाया है। लेकिन बाद में डिंपी खुद ही इस बात से मुकर गई।

सिर्फ राहुल महाजन या प्रिंस टुली ही क्यों बॉलीवुड स्टार सलमान खान पर भी इस तरह के आरोप लगते रहे हैं, और आरोप लगाने वाली उनकी साथी कलाकार रही हैं।

कई बार कई हसीन चेहरे अपनी चोटें और दर्द अपने मेकअप और अपनी मुस्कुराहट के पीछे छिपाए घूमते हैं, पर क्या ज़रूरत है कोई भी मुखौटा ओढ़ने की..अगर दर्द है तो क्यों नहीं चीखते वो..अगर ग़म है क्यों नहीं रोते..अगर कोई कोई हाथ उठाता है तो क्या नहीं पकड़ते..क्यों नहीं पलटकर करते वार।

कल की ही बात है मेरे घर पर काम करने वाली रेखा जब आई तो उसका चेहरा सूजा हुआ था लग रहा था रातभर रोती रही थी वो, चेहरे और हाथ पर कई चोटें भी थी। मैने पूछा तो बोली "दीदी सुरेश ने कल रात मारपीट की" (सुरेश उसके पति का नाम है)। मैनें भी छूटते ही उसे सलाह दे दी "पुलिस में शिकायत क्यों करती तुम अक्ल ठिकाने आ जाएगी उसकी"। "दीदी अक्ल तो ठिकाने आ गई है उसकी मैनें भी कल रात लट्ठ उठा ली थी..नशे में था इसलिए अपने को बचा भी नही पाया वो..हाथ पैर तोड़ कर रख दिए उसके मैंने अब ज़िंदगी भर मुझ पर हाथ उठाने से पहले सौ बार सोचेगा वो"।

उसकी हिम्मत देखकर मन को बहुत तसल्ली मिली थी। अक्सर लोग इन्हें छोटे लोग कहते है,  छोटे हैसियत से या काम से? ये आज तक पता नहीं चला मुझे पर ये "छोटे" लोग ही कभी कभी बड़ी सीख दे जाते हैं कुछ "बड़े" लोगों को।

ये शहर समझ नहीं आया


आसमां तो है... पर परिंदों का झुंड है नदारद
सुबह भी होती है शाम भी ढलती है, पर..
न उसके आने की होती है ख़बर, न जाने का चलता है पता
हवा भी रोज़ बहती है यहां, पर..
सरसराहट महसूस नहीं होती
बारिश भी अक्सर होती है, पर
माटी की भीनी खुशबू नहीं आती
पेड़ों के बहुत से झुंड हैं यहां भी, पर..
पत्तों पर न जाने क्यों उदासी छाई है
भीड़ है हर तरफ यहां, पर..
हर चेहरे पर है एक डर का साया
लाख कोशिशों के बाद भी

शायद, कोई इस शहर को समझ नहीं पाया

Saturday 6 July 2013

अजन्मी का ख़त




मॉं मैं तो सोई थी,
        दुनिया में आने के सपनों में खोई थी।
देखा था मैंने तेरी उंगली अपनी बंद मुठ्ठी में,
तेरे आंगन में गिरना संभलना,
पापा के कंधे पर दुनिया की सैर,
दादी की वो झूठी-सच्ची कहानी,
जिन्हें सुनकर सोती तेरी बिटिया रानी।
गुडिया-गुड्डे की शादी रचाना,
किताबों का बस्ता,फिर रोना मनाना।
पापा का बेटा भी बनना था मुझको,
भीड़ से अलग था कुछ करना मुझको।
तभी किसी ने झकझोर कर जगा दिया,
तेरी कोख़ से मुझको बाहर गिरा दिया।
मेरे सपने भी वहीं गए थे बिखर,
मैं बहुत छटपटाई थी, रोई थी, घबराई थी, हाथ भी था बढ़ाया,
पर वहां सिर्फ डर था, और था घोर अंधेरे का साया।
मां! अगर मुझसे यूं ही था मुंह मोड़ना,

तो नहीं था तुझे कुछ पल का भी नाता जोड़ना।