Tuesday 31 December 2013

मन विजय



मन उदास बैठा था रूठा

सोचा कैसे इसे मनाऊं

कौन कौन से झूठ मैं बोलूं

कितने सच को फिर दफनाऊं

मन की ये बीमारी तो नित रोज है बढ़ती जाएं

क्षण संभले,क्षण टूटे, बिखरे..फिर पल में ही जुड़ जाए।

मन को वश में करने के करते हैं लाख उपाय

पर मन के दरिया में वो सब तिनके से बह जाएं।

कोई बांधे, कोई भूले कोई ध्यान का झूला झूले

पर मायावी मन के आगे इन शस्त्रों की एक न चले।

मन का राजा बनना है तो कुछ करना होगा दूजा

इस तिकड़मी दुनिया में तुमको बनना होगा बच्चा।

मन भी पीछे पीछे फिर एक बच्चा सा हो जाएगा

चंचल होगा, नटखट होगा पर नेक दिल कहलाएगा।

न छल कपट की नदिया होगीं, न बैर का होगा साया

न लालच के फल पनपेंगे, न चिंता न भय और माया।

जीवन खेल खिलौनों सा फिर रंग-बिरंगा होगा,

मन का घोड़ा भी होगा साथी अपना, सही दिशा दौड़ेगा।




Sunday 29 December 2013

नया लोकतंत्र


हममें से बहुतों ने आजादी की लड़ाई, स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष को सिर्फ किस्से कहानियों और स्कूल की किताबों में पढा सुना है, लगता था कुछ बिरले ही होंगे जो वर्तमान बदलकर अदभुत इतिहास रचते होंगे। आज फिर से भारतीय समाज और राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया, लाखों करोड़ों के बीच से बदलाव की गुहार लगाती एक आवाज़ ने राजनीति के मंझे हुए कलाकारों को अपने सुर ताल दुरुस्त करने की सीख दे दी है।

क्या आज से ठीक पांच साल पहले के दिल्ली विधानसभा चुनावों के वक्त अरविंद केजरीवाल ने सोचा होगा कि अगले चुनाव की दिशा और दशा वो तय कर रहे होंगे? शायद नहीं । यहां तक कि चुनावों से पहले तक उन्हें 28 सीटों पर जीत हासिल करने की उम्मीद नहीं थी पर कहते है न कि जिस तरह क्रिकेट के मैदान पर आखिरी गेंद तक मैच का रुख बदल सकता है ठीक वैसे ही राजनीति की बिसात पर कब कौन किसकी बाजी पलट दे कुछ नहीं कह सकते।

कुछ लोग कहते हैं अरविंद की किस्मत में राज योग है, कुछ उन्हें तिकड़मी और खिलाड़ी मान रहें है तो कुछ मौके पर चौका मारने वाला शख्स । कोई कह रहा है अरविंद ने कांग्रेस का हाथ थाम कर अपने सिद्धांतों से समझौता किया तो कोई उन्हें कांग्रेस के बिछाए जाल में फंसता देख रहा है। इन सब आरोपों, विरोध, समर्थन और प्रशंसा के बीच जो सबसे अहम बात सामने आई है वो है विश्वास और उम्मीद। विश्वास लोकतंत्र पर और उम्मीद बदलाव की। जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शुरू हुए एक आंदोलन ने सत्ता बदल डाली और बड़े राजनीतिक दलों को चुनावी वादों और इरादों पर फिर से विचार करने पर मजबूर किया ये भले ही चौंकाने वाला न हो पर उम्मीद से कुछ बढ़कर ज़रूर है।

दिल्ली की सियासत में ये जो नया अध्याय जुड़ा है उससे एक और बात साफ हो जाती है कि विरोध की हर लहर सत्ता के गलियारों की दीवारों से टकराकर बिखर नहीं जाती है बल्कि ऐसी आंधी में कभी कभी दीवारें दरक कर टूट भी जाती हैं।

सवाल ये नहीं कि आम आदमी पार्टी की सरकार कितने दिन या महीनें चलती है, सवाल ये भी नहीं है कि वो दिल्ली के लोगों से किए सारे वायदे पूरे कर पाएंगे या नहीं बल्कि देखने, समझने और महसूस करने लायक ये है कि भले ही कुछ वक्त के लिए लोगों का भरोसा लौटा है, लोगों में सच्ची उम्मीद जगी है। सड़क से सरकारी दफ़्तर तक छोटे से लेकर बड़े भ्रष्टाचार का शिकार हुए एक आम आदमी को एक बहुत बड़ी राहत की आस है। लोगों को हौंसला मिला है कि बदलाव के लिए जुटी भीड़ को तो तितर बितर किया जा सकता है पर सोच को नहीं। तत्काल ऐसी उम्मीद करना कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगी, सभी सरकारी बाबू और अफसर ऊपर की कमाई करना बंद कर देंगे, बहुत जल्दबाज़ी होगी। लेकिन हां जिस विरोध ने आम आदमी को राजधानी का राज सौंपा है अगर वो वैसे ही जारी रहे तो बदलाव ज़्यादा दूर नहीं।

एक सच यह भी है कि समस्या गिनाना और समस्याओं को दूर करना दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम की असल लड़ाई तो अब शुरू होगी। सत्ता बदलने के लिए सत्ता में आने की बात करने वाले अरविंद को इस तंत्र को साफ करने के लिए यहां तक पहुंचने से कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी। वो सफल होंगे या नहीं पर कुछ तो बदलेगा ऐसी उम्मीद बांध ही सकते हैं। एक और बात जो याद रखनी पड़ेगी कि देश के रथ की कमान चंद नेताओं को सौंपने के बाद भी उस पर सवार जनता को अपनी आंखें और कान खुले रखने होंगे नहीं तो रथ को किस दिशा में चलना है ये सिर्फ वो सारथी ही तय करने लगेंगे।