Friday 22 November 2013

चिराग तले अंधेरा



फिर चारों तरफ से नारेबाज़ी शुरू हो गई, फिर से मंच सज गए है, फेसबुक ट्वीटर पर ज्ञान गीत बजने लगे हैं। क्यों भाई..क्यों इतना हंगामा मचा रखा है? मीडिया के ऐसे आसाराम का सच आम लोगों के लिए चौंकाने वाला हो सकता है पर ये बिरादरी (मीडिया) खुद क्यों इतनी भौचक्की हैं? तहलका की महिला पत्रकार के साथ जो कुछ भी हुआ और फिर वो पूरी घटना जिस तरह से सार्वजनिक हुई शायद इसलिए हम यूं रोना पीटना मचा रहे हैं। पर क्या ये सच नहीं कि हर छोटे-बड़े मीडिया संस्थान में इस तरह के टी.टी. ()मौजूद हैं और अक्सर कोई न कोई महिला पत्रकार किसी न किसी तरह के शोषण का शिकार होती है।
खुद को सबसे ज़्यादा प्रगतिशील, निरपेक्ष, सत्यवादी और न्यायवादी मानने वाला समाज का ये वर्ग (मीडिया) आज  सवालों के घेरे में है वो भी अपने ही सहअस्तित्व की अस्मिता की सुरक्षा को लेकर। लेकिन क्या ये सवाल अचानक आ खड़े हुए हैं? नहीं ये तो पहले भी मौजूद थे पर इसे अनदेखा किया जाना भारी भूल साबित हुई।
एक ओर जब जंतर मंतर से लेकर इंडिया गेट तक निर्भया के लिए न्याय की गुहार लगाई जा रही थी और मीडिया उस जनसैलाब की आवाज़ बना था। वहीं दूसरी ओर किसी न्यूज़ रूम में एक अधेड़ उम्र का शख्स अपनी महिला सहकर्मी की नीलेंथ स्कर्ट पर अपनी बिन मांगी राय दे रहा होता है। कभी किसी अच्छी रिपोर्ट पर शाबाशी देने के बहाने किसी महिला रिपोर्टर की पीठ थपथपाना। किसी स्टोरी आइडिया को डिस्कस करने के बहाने घंटों अपने वाहियात चुटकुले सुनाना और न जाने क्या-क्या। ज़्यादातर मीडिया संस्थान में काम करने वाली महिलाओं को इस तरह की घटिया हरकतों से दो चार होना पड़ता हैं, कुछ इनका विरोध करके सामने वाले को चुप करा देती हैं और कुछ चुप रहकर घुटघुट कर काम करती हैं और इस तरह उन घटिया सोच के लोगों को बढ़ावा देती हैं।
एक और ग़लत धारणा है मीडिया में काम कर रहे कुछ पुरूषों की, अगर कोई महिला सहकर्मी सिगरेट और शराब पीती है और सभी से हंसकर बोल लेती है तो फिर कोई भी उसके कैरेक्टर का रचियता बनने लगता है। किसी खूबसूरत लड़की को अच्छा इंक्रीमेंट या प्रमोशन मिलना उसकी काबलियत नहीं बल्कि कुछ और ही समझा जाता है और फिर आफिस में उस लड़की की कहानियां और किस्सें हर कॉफी और चाय की टेबल पर नमक मिर्च लगा कर इस तरह बयां होते हैं जैसे हर कोई उसका सबसे करीबी हो। मीडिया की दुनिया की चकाचौंध में कई अंधेरे कोने यूं ही गुमनाम पड़े हैं जहां की ख़बरें कभी बाहर नहीं आतीं।

जब मैं पत्रिकारिता संस्थान से डिप्लोमा करके बाहर निकली तो मेरी एक दोस्त ने मुझे सलाह दी थी कि ऑफिस में किसी से ज़्यादा हंसकर बात मत करना, ज़्यादा सॉफ्ट मत बनना लोग ग़लत मतलब निकालेगें। बात बात में एक बार मैंने यह भी सुना कि जो लड़कियां न्यूज़रूम में चिल्ला चिल्लाकर बात करती हैं या फिर गाली गलौज करती हैं उनसे कोई कुछ ग़लत करने की कोशिश नहीं करता। अरे भाई खुद के साथ ग़लत होने से रोकने के लिए खुद को ग़लत बनाना ज़रूरी है मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं बल्कि ग़लत के खिलाफ़ बिना परिणाम की परवाह किए आवाज़ उठाई जानी चाहिए।
तहलका की महिला पत्रकार को मेरी बधाई जो उन्होंने चुप रह कर नौकरी छोड़ने की बजाय अपने साथ हुए ग़लत के लिए आवाज़ उठाई है। ये इतना आसान नहीं होता है, बहुत डर सताता है ख़ासकर अगर सामने वाला शख्स आपसे ज़्यादा ताकतवर हो। हिम्मत की बातें करना और हिम्मत दिखाना दोनों के बीच लंबा फासला तय करना होता है। महिला पत्रकार की इस एक आवाज़ से मीडिया में काम करने वाली हज़ारों दूसरी लड़कियों और महिलाओं को रास्ता दिखेगा जो किसी न किसी वजह से अपने साथ हुए ग़लत के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठातीं। इसी के साथ हर नये आंदोलन के अग्रदूत रथ (मीडिया) को अपने पहियों में लगे दीमक को धूप दिखाने पर भी विचार करना होगा।


No comments:

Post a Comment