Saturday 7 September 2013

कब बदलेगी सोच?



मेरी पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर एक बड़ा ही अजीब सा तथ्य रखा। उनका (हो सकता है और भी बहुत से लोगों का) मानना है कि लोग लड़कियां इसलिए नही चाहते क्योंकि लड़कियों की इज़्ज़त की सुरक्षा उनको पढ़ाने लिखाने और उनकी शादी करने की ज़िम्मेदारी से कहीं ज़्यादा बड़ी हो गई है। उनकी कही इस बात से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अपने घर परिवार और आस-पास कई बार इस तरह की दलीलें सुन चुकीं हूं।
बहुत ही दुख की बात है कि आज हमारे समाज में महिला अपराध के बारे में जितनी खुल कर बातें हो रहीं हैं, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून कड़े किए जा रहे है, महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और समाज में उनकी हिस्सेदारी को ढोल पीट कर हर मंच पर रखा जा रहा है उतना ही उन्हें इस दुनिया में आने से रोका जा रहा है।
आश्चर्य होता है खुद को ऐसे समाज में देखकर जहां हमारे वजूद को बचाने के लिए हमें रोज एक लड़ाई लड़नी पड़ती है, कभी परिवार से, कभी समाज से।
एक ओर जहां कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कई सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर देश में लिंगानुपात लगातार बिगड़ता जा रहा है। 1000 पुरुषों पर सिर्फ 914 महिलाएं। और सबसे ज़्यादा ये बात हैरान करती है कि गांवों की तुलना में शहरों के पॉश कहे जाने वाले इलाक़ों में अजन्मियों का क़त्ल सबसे ज़्यादा हो रहा है। उन्हीं इलाक़ों में रहने वाले कुछ ख़ास लोग बड़े बड़े सार्वजनिक मंच और न्यूज़ स्टूडियों में संवेदना के कुछ आंसू बहाकर और समस्या का समाधान शिक्षा प्रचार को थमा कर अपना काम पूरा कर देते हैं। मन को कई बार इस बात से आश्वासन दिया कि हो सकता है जैसे जैसे हमारा समाज शिक्षित होगा वैसे वैसे गर्भ में पल रही बच्चियों को भी उनके हिस्से की दुनिया नसीब होगीं, फिर अगले ही पल एक और सवाल ज़ेहन में पैदा हो गया, अगर कन्या भ्रूण हत्या का शिक्षा से कोई लेना देना होता तो पढ़े लिखे डॉक्टर अपने अस्पतालों में इस तरह का पाप न होनें देते और न करते। बात साफ है मुद्दा शिक्षा का नहीं सोच का हैं, और खुली और बड़ी सोच के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं महौल की ज़रूरत होती है।
एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि सिर्फ लड़की होने की वजह से कई बार घर से बाहर अपनी पहचान बनाने से पहले हमें अपनों को ही इम्तिहान देना पड़ता है, उन्हें भरोसा दिलाना पड़ता है कि हम घर, बच्चे, परिवार सब की इच्छाओं और फरमाइशों को पूरा करने के बाद ही कुछ अपने दिल की सुनेगें।
किसी ने राह चलते, भरी बस या भीड़ भरे बाज़ार में हमारे साथ बदसलूकी की और हमने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया तो बहादुरी देने के बजाय कई बार उंगलियां हमारे चरित्र और पहनावे पर ही उठने लगती हैं। कहने में बहुत आसान लगता है कि बलात्कार से जिंदगी ख़त्म नहीं हो जाती, पीड़ित महिला को फिर से पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी ज़िंदगी जीनी चाहिए, कानून और समाज उसके साथ है और न जाने क्या क्या। पर क्या वाकई ऐसा है? और अगर हां तो फिर क्यों बलात्कार की शिकार एक आठ साल की बच्ची को उसके स्कूल से निकाल दिया जाता है? क्यों उनके मजदूर बाप को काम मिलना बंद हो जाता है? क्यों आस-पड़ोस के लोग अपने बच्चों को उस लड़की के साथ खेलने नहीं देते? क्यों हमारा समाज ऐसा बर्ताव उन लोगों के साथ नहीं करता जो इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं? क्यों उन लोगों के खिलाफ़ कड़े कदम नहीं उठाए जाते जो लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मार देते हैं क्यों? क्यों ऐसे डॉक्टर्स को जेल में नहीं डाला जाता जो पैसों की लालच में जल्लाद बनें जा रहे हैं? क्यों?
इन सब सवालों पर हर बड़े मंच पर लगातार बहस जारी है....न जाने कब तक चलती रहेगी...कब ख़त्म होगा ये इंतज़ार और कब मिलेगा लड़कियों को पैदा होने और सम्मान से जीने का पूरा अधिकार ?

-शिखा द्विवेदी 



1 comment:

  1. निश्चित रुप से लड़कियों के प्रति बर्बरता को समूल मिटाने की आवश्‍यकता है। इसे मिटाए बिना चैन से भी नहीं बैठना चाहिए।

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