Sunday, 7 July 2013

ये शहर समझ नहीं आया


आसमां तो है... पर परिंदों का झुंड है नदारद
सुबह भी होती है शाम भी ढलती है, पर..
न उसके आने की होती है ख़बर, न जाने का चलता है पता
हवा भी रोज़ बहती है यहां, पर..
सरसराहट महसूस नहीं होती
बारिश भी अक्सर होती है, पर
माटी की भीनी खुशबू नहीं आती
पेड़ों के बहुत से झुंड हैं यहां भी, पर..
पत्तों पर न जाने क्यों उदासी छाई है
भीड़ है हर तरफ यहां, पर..
हर चेहरे पर है एक डर का साया
लाख कोशिशों के बाद भी

शायद, कोई इस शहर को समझ नहीं पाया

1 comment:

  1. वाह क्‍या अच्‍छी भावयुक्‍त कविता है। ब्‍लॉगर डैशबोर्ड में सेटिंग्‍स में जाकर (वर्ड वेरिपिकेशन) पर (नो) कर दें, टिप्‍पणी देने में आसानी हो जाएगी।

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