Tuesday, 4 March 2014

हर दिन है हमारा



घर की रसोई में जल्दी जल्दी हाथ चलाती रोटियां बनाती सुमन, इस घर के बाद दूसरे घर भी जाना है उसे खाना बनाने। आइने के सामने उतनी ही तेज़ी से अपने बाल बनाती नेहा, घर से जल्दी निकलना है उसे दोनों बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद ऑफिस की ज़रूरी मीटिंग में टाइम से पहुंचना है। आठ साल की पलक अपने छोटे भाई पुलकित की मदद कर रही है जूते के रिबन बांधनें में फिर उसे भी तैयार होना है स्कूल के लिए। विमला देवी घर के मंदिर में भजन कीर्तन में व्यस्त है उनकी प्रार्थना में उनके घर के हर शख़्स की सलामती और खुशहाली की मन्नतें छिपी हैं। ये झलकियां हमारे देश के तकरीबन हर घर में देखनें को मिल जाएंगी। घर की छोटी बिटिया से लेकर बूढी दादी तक हर महिला अपने कुछ मांगे तो कुछ लादे गए कर्तव्यों को रोज जीतीं है।

अपने आत्मविश्वास को चट्टानों की चादर से ढ़क रोज तूफानों से जूझती हैं औरतें। उम्र, रंग, भाषा, महजब, ओहदे और तजुर्बे की ज़मीन ज़रूर जुदा होती है इनकी, पर सिर के ऊपर पसरा सपनों और अरमानों का आसमां एक ही है इनका। इनके सपनों में हमेशा इनका पूरा बसेरा बसता है, आंखें इनकी होती हैं पर सपने उसमें अपनों के लिए संजोती हैं। एक मां अपने बेटे की खुशहाली के सपने देखती है, एक पत्नी पति की तरक्की के लिए, एक बेटी कामयाबी की ओर बढ़ते अपने हर कदम से अपने पिता की खुशियों का रास्ता बनाती है, एक बहन हर बेजान धागे में अपने भाई की लंबी उम्र की दुआ भरती है। और ये सब अपने हर रिश्ते को किसी एक दिन नहीं अपने प्यार और समर्पण से हर रोज सींचती हैं।

सिर्फ परिवार और घर ही क्यों, घर के बाहर की दुनिया में भी रोज नये रास्ते बनाती और नये मुकाम तय करती हैं यें । कुछ रास्तों पर चलते हुए ठोंकरे भी लगती है, कुछ इंसान रूपी जानवरों से बचना संभलना भी पड़ता है कुछ तेजाब में भीगें शब्दों के तीर कानों को चीरते हुए सीधे आत्म-सम्मान पर हमला भी करते हैं पर इन कुछ छोटे कुछ गहरे घावों को समेटे उनपर हौसले की पट्टी बांध वो औरतें फिर से अपनी मंजिल तक पहुंचती नज़र आती हैं। ये औरतें अपनी ही दुनिया में अपने आधे हक की लड़ाई रोज लड़ती हैं, कभी हारती है तो कभी जीत जाती हैं। हार का दर्द उनकी जागीर बन जाती है पर जीत की मिठाई से हर कोई अपना मुंह मीठा करना चाहता है।
अपनी खुशियों, अपनी लड़ाइयों, अपनों के लिए प्यार और अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ ये औरते चौबीस घंटे सातों दिन दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक मुस्तैद है। हर घर के दिन की शुरूआत इन्हीं की पुकार से होती है और हर रात सबसे आखिरी नींद इन्हीं की आंखों में बसती है। तो सिर्फ एक दिन कैसे ख़ास हो सकता है इनके लिए। इनका तो हर दिन ख़ास है कुछ में मुस्कुराहटें मिलती हैं तो कुछ आंखों में नमी का सबब बनते हैं। 

अगर दिन ही बांटना है तो हर दिन आधा दिन महिला दिवस और आधा पुरूष दिवस होना चाहिए। सिर्फ एक दिन महिला सम्मान और तीन सौ चौंसठ दिन अपने नाम करने के बजाय हर दिन आधा ही सही पर पूरा और सच्चा सम्मान मिलना चाहिए।

शिखा द्विवेदी

Monday, 3 February 2014

अंश, पर वंश नहीं?




घर का चिराग, वंश को आगे बढ़ाने वाला, बुढ़ापे की लाठी और न जाने क्या क्या तमगे बेटों को गाहे बगाहे दिए जाते हैं । बेटियों को भी कोई घर की लक्ष्मी कहता है तो कोई परिवार की इज्ज़त। पर ऐसे लोगों की भी कमी नही जो बेटियों के दुनिया में आते ही उन्हें पराया धन और दान बताना शुरू कर देते हैं अगर उन्हीं के शब्दों को थोड़ा विस्तार से समझें तो बेटियां मां-बाप के घर किसी दूसरे की अमानत होती हैं जिन्हें सही वक्त आने पर उनके असली हकदार को दान कर दिया जाता है। कितनी बुरी सोच है ये, ऐसे वाक्य जिन्हें अगर अपशब्दों की श्रेणी में रख दिया जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। लोग अपनी मुट्ठी भर निर्जीव ज़मीन से इतना लगाव रखते हैं कि दूसरे हाथों में उसे जाता देख खूनखराबे पर उतर आते हैं फिर बड़ी आसानी से एक जीती जागती स्त्री को पराया धन कैसे कह देते हैं। ये शब्द, विचार और बातें हमारे समाज में इस तरह रच बस गई हैं कि इस पर कितनी ही बहस कर ली जाय इस ग़लत सोच को लोग रीति-रिवाज़, धर्म और समाज की चादरों से ढांक कर सही साबित करते रहेंगे।

कुछ दिनों पहले की बात है मेरी एक मित्र ने बेटी को जन्म दिया ये उसका दूसरा बच्चा है। पर ये ख़बर मुझे जिस रूप में दी गई वो कुछ इस तरह थी, अरे फिर से लड़की पैदा हो गई। मैं दोस्त से मिलने और बधाई देने उसके घर गई वहां कुछ लोगों के चेहरे इस तरह मुरझाए नज़र आए मानो कोई लूट ले गया हो उन्हें। मेरी मित्र के ससुर जी को दोहरा सदमा लगा था एक तो बच्चा ऑपरेशन से हुआ जिसमें 60 हज़ार का खर्चा हो गया दूसरा फिर से बिटिया आ गई। उनका मानना था कि लड़का हो जाता तो खर्चा करना सफल हो जाता और घर का चिराग भी मिल जाता। बड़ा अफसोस हो रहा था उनकी सोच पर लेकिन तसल्ली थी कि मेरी दोस्त और उनके पति ऐसी बातों से विचलित हुए बिना अपनी बेटियों को ही अपनी दुनिया मानते हैं। मन तो बहुत हुआ कि वापस आने से पहले पूज्य अंकल जी से चंद सवाल करूं और उनकी घटिया सोच की बुनियाद को थोड़ा हिलाने की कोशिश करूं पर मौके और रिश्ते की नज़ाकत को देखते हुए इस काम के लिए दूसरे वक्त और महौल का इंतज़ार करना बेहतर समझा।

सवाल ऐसे है जो मन और मस्तिष्क के किसी भी कोने में छिपने को तैयार नहीं। समझ नहीं आता आखिर बेटे दो हों या चार जब इस बात पर लोगों को तकलीफ नहीं होती तो फिर दो बेटियां क्यों आंख की किरकिरी बन जाती हैं। क्या फर्क पड़ जाता है औलाद के लिंग से। क्या बेटियां ज़्यादा खाना खाती है, क्या उन्हें पढ़ाने और पालने में बेटों की तुलना में ज़्यादा धन खर्च होता है क्या है वजह बेटियों की पैदाइश से नफ़रत करने की। क्या भार लाद लेती हैं ये बेटियां परिवार और समाज पर जो बात बात पर उन्हें बोझ घोषित कर दिया जाता है। उन्हें स्कूल भेजने से पहले ही उनकी शादी के खर्च का ब्यौरा तैयार होने लगता है । क्या शादी से आगे या उससे इतर बेटियों का कोई भविष्य नहीं होता। जब बेटों के भविष्य के लिए ज़मीन जायदाद इकट्ठा करने में किसी को कोई तकलीफ नहीं होती फिर बेटी के भविष्य के लिए धन जमा करने को मजबूरी क्यों बना देते हैं।

सबसे तकलीफ़देह बात यह मानना कि वंश बेटे आगे बढ़ाते हैं? क्या बेटियां आसमान से टपकती जो उन्हें पैदा होते ही पराया घोषित कर दिया जाता है? आखिर उनमें भी मां-बाप का अंश उतना ही होता है जितना किसी बेटे में फिर किस आधार पर बेटों को ही वंश का मालिक क्यों घोषित कर दिया गया है। क्या बेटियां अपने नाम के साथ साथ अपने मां-बाप का नाम आगे नहीं बढ़ाती क्या उनका अस्तित्व समाज में उनके परिवार की अगुवाई नहीं कर सकता। ज़रूरी है इन मुद्दों का बार बार उठना शायद इसी तरह उठते गिरते इन सवालों को इनका उत्तर और मंज़िल मिल जाए।

                              -शिखा द्विवेदी


Thursday, 16 January 2014

बचपन रखें ज़िंदा



कुछ लोगों को अक्सर सुनने को मिल जाता है अरे क्या बच्चों जैसी हरकतें कर रहे हो?’ तो कुछ लोगों को बार बार याद दिलाया जाता है कि सुधर जाओ अब तुम बढ़े हो गए हो बच्चे नहीं रहे। कुछ भी हो एक बात तो साफ है कि जिन्हें भी ये सब सुनने को मिलता है उनमें कुछ तो बचपन अभी तक बचा है और जिनमें बचपन बचा होता है असल ज़िंदगी तो वो ही जीते हैं शायद।
हम उम्र, ओहदे या रिश्तों के पायदान पार करते हुए चाहे कितने ही बड़े हो जाए हम सब के दिल के एक कोने में बचपन ज़रूर दुबका बैठा होता है। कोई उसे नियम, संयम और कायदे-फायदे का चाबुक दिखा कर चुप करा देता है तो कोई मौके-मौके पर उसे थोड़ी छूट दे देता है।

तेज़ धूप और गर्मी के बाद जब बारिश की बूंदें रिमझिम गाती है तो भीगने में किसे मजा नहीं आता। रुपये जेब में होने के बावजूद खरीद के खाने के बजाय पत्थर मार कर तोड़े गए आम और अमरूद भला किसे नहीं भाते। शहरों में धुंए और धूल से पटे आसमान पर अगर इंद्रधनुष दिख जाए तो फिर कौन नहीं ज़ाहिर करेगा खुशी। हम दाल-चालव हाथ से खाना चाहते हैं पर खाते नहीं। हमें डांस नहीं आता, ख़राब ही सही फिर भी हम डांस करना चाहते हैं पर नहीं करते। और भी न जाने कितनी छोटी-छोटी ऐसी हसरतें हैं जिन्हें हम पूरा करना चाहते हैं और जो पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ हमारी ज़िंदगी से जुड़ी है दूसरों की पसंद नापसंद से उनका कोई लेना देना नहीं पर हम नहीं करते क्यों? क्योंकि हम खुद से ज़्यादा दूसरों की सोच और दिमाग से चलते हैं। हम खुद क्या चाहते हैं इससे पहले हम ये सोचते हैं कि दूसरे क्या सोंचेगे? क्या कहेंगे? अरे भाई दूसरे क्या सोचते हैं ये दूसरों पर छोड़ दो, किसी और के दिमाग का बोझ अपने दिमाग पर डालने से कोई फायदे नहीं होगा। और फिर छोटी-छोटी खुशियों को अपनाने में इतना क्या हिचकिचाना। दूसरों की फिक्र तो तब करो जब दूसरों के साथ कुछ ग़लत करने जा रहे हो।

अपने जीवन में बचपन को ज़िंदा रखने के कई फायदें हैं। आपके होठों पर हमेशा एक मासूम मुस्कान होगी। दिमाग में कल की फिक्र नहीं बल्कि आज का जश्न होगा। जीतने का जज़्बा तो होगा पर हार की टीस घर नहीं बनाएगी। सफलता पर दिल खोल कर हंस लेगें और घमंड हंसी के साथ निकल जाएगा सिर नहीं चढ़ पाएगा। और अगर कभी निराशा या विफलता हाथ लगी तब भी दिल टूटेगा नहीं बल्कि अगली कोशिश के लिए तुरंत तैयार मिलेगा। अगर बचपन दिल में बसा लें तो फिर बहुत सी बुराईयां खुद ब खुद बाहर का रास्ता तलाश लेंगी।

हम अक्सर छोटे बच्चों को देखते हैं जो हंसते हंसते रोने लगते हैं और थोड़ी ही देर में फिर से सामान्य हो जाते हैं। कभी एक-दूसरे से झगड़ते हैं तो अगले ही पल ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। हम सब ने खुद भी उन लम्हों को ज़िया है और पीछे छोड़ आए हैं ज़रूरत है पर कुछ कदम पीछे लौटने की और उन लम्हों को समेटकर खुद में बसाने की। कहते हैं वक्त कभी नहीं लौटता, सही भी है पर यादें और उनमें बसी भावनाएं हमेशा खींच कर वर्तमान में लायी जा सकती हैं।

छोटी सी कोशिश, दूसरों के लिए नहीं खुद के लिए मन में बचपन को बसाने की। सच्चाई और अच्छाई दोनों ही बच्चों की खूबियां हैं, बचपन की निशानियां हैं इन्हें खोने मत दीजिए, दिल में बसाइये और बढ़ाइये।


                            

Tuesday, 31 December 2013

मन विजय



मन उदास बैठा था रूठा

सोचा कैसे इसे मनाऊं

कौन कौन से झूठ मैं बोलूं

कितने सच को फिर दफनाऊं

मन की ये बीमारी तो नित रोज है बढ़ती जाएं

क्षण संभले,क्षण टूटे, बिखरे..फिर पल में ही जुड़ जाए।

मन को वश में करने के करते हैं लाख उपाय

पर मन के दरिया में वो सब तिनके से बह जाएं।

कोई बांधे, कोई भूले कोई ध्यान का झूला झूले

पर मायावी मन के आगे इन शस्त्रों की एक न चले।

मन का राजा बनना है तो कुछ करना होगा दूजा

इस तिकड़मी दुनिया में तुमको बनना होगा बच्चा।

मन भी पीछे पीछे फिर एक बच्चा सा हो जाएगा

चंचल होगा, नटखट होगा पर नेक दिल कहलाएगा।

न छल कपट की नदिया होगीं, न बैर का होगा साया

न लालच के फल पनपेंगे, न चिंता न भय और माया।

जीवन खेल खिलौनों सा फिर रंग-बिरंगा होगा,

मन का घोड़ा भी होगा साथी अपना, सही दिशा दौड़ेगा।




Sunday, 29 December 2013

नया लोकतंत्र


हममें से बहुतों ने आजादी की लड़ाई, स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष को सिर्फ किस्से कहानियों और स्कूल की किताबों में पढा सुना है, लगता था कुछ बिरले ही होंगे जो वर्तमान बदलकर अदभुत इतिहास रचते होंगे। आज फिर से भारतीय समाज और राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया, लाखों करोड़ों के बीच से बदलाव की गुहार लगाती एक आवाज़ ने राजनीति के मंझे हुए कलाकारों को अपने सुर ताल दुरुस्त करने की सीख दे दी है।

क्या आज से ठीक पांच साल पहले के दिल्ली विधानसभा चुनावों के वक्त अरविंद केजरीवाल ने सोचा होगा कि अगले चुनाव की दिशा और दशा वो तय कर रहे होंगे? शायद नहीं । यहां तक कि चुनावों से पहले तक उन्हें 28 सीटों पर जीत हासिल करने की उम्मीद नहीं थी पर कहते है न कि जिस तरह क्रिकेट के मैदान पर आखिरी गेंद तक मैच का रुख बदल सकता है ठीक वैसे ही राजनीति की बिसात पर कब कौन किसकी बाजी पलट दे कुछ नहीं कह सकते।

कुछ लोग कहते हैं अरविंद की किस्मत में राज योग है, कुछ उन्हें तिकड़मी और खिलाड़ी मान रहें है तो कुछ मौके पर चौका मारने वाला शख्स । कोई कह रहा है अरविंद ने कांग्रेस का हाथ थाम कर अपने सिद्धांतों से समझौता किया तो कोई उन्हें कांग्रेस के बिछाए जाल में फंसता देख रहा है। इन सब आरोपों, विरोध, समर्थन और प्रशंसा के बीच जो सबसे अहम बात सामने आई है वो है विश्वास और उम्मीद। विश्वास लोकतंत्र पर और उम्मीद बदलाव की। जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शुरू हुए एक आंदोलन ने सत्ता बदल डाली और बड़े राजनीतिक दलों को चुनावी वादों और इरादों पर फिर से विचार करने पर मजबूर किया ये भले ही चौंकाने वाला न हो पर उम्मीद से कुछ बढ़कर ज़रूर है।

दिल्ली की सियासत में ये जो नया अध्याय जुड़ा है उससे एक और बात साफ हो जाती है कि विरोध की हर लहर सत्ता के गलियारों की दीवारों से टकराकर बिखर नहीं जाती है बल्कि ऐसी आंधी में कभी कभी दीवारें दरक कर टूट भी जाती हैं।

सवाल ये नहीं कि आम आदमी पार्टी की सरकार कितने दिन या महीनें चलती है, सवाल ये भी नहीं है कि वो दिल्ली के लोगों से किए सारे वायदे पूरे कर पाएंगे या नहीं बल्कि देखने, समझने और महसूस करने लायक ये है कि भले ही कुछ वक्त के लिए लोगों का भरोसा लौटा है, लोगों में सच्ची उम्मीद जगी है। सड़क से सरकारी दफ़्तर तक छोटे से लेकर बड़े भ्रष्टाचार का शिकार हुए एक आम आदमी को एक बहुत बड़ी राहत की आस है। लोगों को हौंसला मिला है कि बदलाव के लिए जुटी भीड़ को तो तितर बितर किया जा सकता है पर सोच को नहीं। तत्काल ऐसी उम्मीद करना कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगी, सभी सरकारी बाबू और अफसर ऊपर की कमाई करना बंद कर देंगे, बहुत जल्दबाज़ी होगी। लेकिन हां जिस विरोध ने आम आदमी को राजधानी का राज सौंपा है अगर वो वैसे ही जारी रहे तो बदलाव ज़्यादा दूर नहीं।

एक सच यह भी है कि समस्या गिनाना और समस्याओं को दूर करना दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम की असल लड़ाई तो अब शुरू होगी। सत्ता बदलने के लिए सत्ता में आने की बात करने वाले अरविंद को इस तंत्र को साफ करने के लिए यहां तक पहुंचने से कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी। वो सफल होंगे या नहीं पर कुछ तो बदलेगा ऐसी उम्मीद बांध ही सकते हैं। एक और बात जो याद रखनी पड़ेगी कि देश के रथ की कमान चंद नेताओं को सौंपने के बाद भी उस पर सवार जनता को अपनी आंखें और कान खुले रखने होंगे नहीं तो रथ को किस दिशा में चलना है ये सिर्फ वो सारथी ही तय करने लगेंगे।

                                                

Friday, 22 November 2013

चिराग तले अंधेरा



फिर चारों तरफ से नारेबाज़ी शुरू हो गई, फिर से मंच सज गए है, फेसबुक ट्वीटर पर ज्ञान गीत बजने लगे हैं। क्यों भाई..क्यों इतना हंगामा मचा रखा है? मीडिया के ऐसे आसाराम का सच आम लोगों के लिए चौंकाने वाला हो सकता है पर ये बिरादरी (मीडिया) खुद क्यों इतनी भौचक्की हैं? तहलका की महिला पत्रकार के साथ जो कुछ भी हुआ और फिर वो पूरी घटना जिस तरह से सार्वजनिक हुई शायद इसलिए हम यूं रोना पीटना मचा रहे हैं। पर क्या ये सच नहीं कि हर छोटे-बड़े मीडिया संस्थान में इस तरह के टी.टी. ()मौजूद हैं और अक्सर कोई न कोई महिला पत्रकार किसी न किसी तरह के शोषण का शिकार होती है।
खुद को सबसे ज़्यादा प्रगतिशील, निरपेक्ष, सत्यवादी और न्यायवादी मानने वाला समाज का ये वर्ग (मीडिया) आज  सवालों के घेरे में है वो भी अपने ही सहअस्तित्व की अस्मिता की सुरक्षा को लेकर। लेकिन क्या ये सवाल अचानक आ खड़े हुए हैं? नहीं ये तो पहले भी मौजूद थे पर इसे अनदेखा किया जाना भारी भूल साबित हुई।
एक ओर जब जंतर मंतर से लेकर इंडिया गेट तक निर्भया के लिए न्याय की गुहार लगाई जा रही थी और मीडिया उस जनसैलाब की आवाज़ बना था। वहीं दूसरी ओर किसी न्यूज़ रूम में एक अधेड़ उम्र का शख्स अपनी महिला सहकर्मी की नीलेंथ स्कर्ट पर अपनी बिन मांगी राय दे रहा होता है। कभी किसी अच्छी रिपोर्ट पर शाबाशी देने के बहाने किसी महिला रिपोर्टर की पीठ थपथपाना। किसी स्टोरी आइडिया को डिस्कस करने के बहाने घंटों अपने वाहियात चुटकुले सुनाना और न जाने क्या-क्या। ज़्यादातर मीडिया संस्थान में काम करने वाली महिलाओं को इस तरह की घटिया हरकतों से दो चार होना पड़ता हैं, कुछ इनका विरोध करके सामने वाले को चुप करा देती हैं और कुछ चुप रहकर घुटघुट कर काम करती हैं और इस तरह उन घटिया सोच के लोगों को बढ़ावा देती हैं।
एक और ग़लत धारणा है मीडिया में काम कर रहे कुछ पुरूषों की, अगर कोई महिला सहकर्मी सिगरेट और शराब पीती है और सभी से हंसकर बोल लेती है तो फिर कोई भी उसके कैरेक्टर का रचियता बनने लगता है। किसी खूबसूरत लड़की को अच्छा इंक्रीमेंट या प्रमोशन मिलना उसकी काबलियत नहीं बल्कि कुछ और ही समझा जाता है और फिर आफिस में उस लड़की की कहानियां और किस्सें हर कॉफी और चाय की टेबल पर नमक मिर्च लगा कर इस तरह बयां होते हैं जैसे हर कोई उसका सबसे करीबी हो। मीडिया की दुनिया की चकाचौंध में कई अंधेरे कोने यूं ही गुमनाम पड़े हैं जहां की ख़बरें कभी बाहर नहीं आतीं।

जब मैं पत्रिकारिता संस्थान से डिप्लोमा करके बाहर निकली तो मेरी एक दोस्त ने मुझे सलाह दी थी कि ऑफिस में किसी से ज़्यादा हंसकर बात मत करना, ज़्यादा सॉफ्ट मत बनना लोग ग़लत मतलब निकालेगें। बात बात में एक बार मैंने यह भी सुना कि जो लड़कियां न्यूज़रूम में चिल्ला चिल्लाकर बात करती हैं या फिर गाली गलौज करती हैं उनसे कोई कुछ ग़लत करने की कोशिश नहीं करता। अरे भाई खुद के साथ ग़लत होने से रोकने के लिए खुद को ग़लत बनाना ज़रूरी है मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं बल्कि ग़लत के खिलाफ़ बिना परिणाम की परवाह किए आवाज़ उठाई जानी चाहिए।
तहलका की महिला पत्रकार को मेरी बधाई जो उन्होंने चुप रह कर नौकरी छोड़ने की बजाय अपने साथ हुए ग़लत के लिए आवाज़ उठाई है। ये इतना आसान नहीं होता है, बहुत डर सताता है ख़ासकर अगर सामने वाला शख्स आपसे ज़्यादा ताकतवर हो। हिम्मत की बातें करना और हिम्मत दिखाना दोनों के बीच लंबा फासला तय करना होता है। महिला पत्रकार की इस एक आवाज़ से मीडिया में काम करने वाली हज़ारों दूसरी लड़कियों और महिलाओं को रास्ता दिखेगा जो किसी न किसी वजह से अपने साथ हुए ग़लत के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठातीं। इसी के साथ हर नये आंदोलन के अग्रदूत रथ (मीडिया) को अपने पहियों में लगे दीमक को धूप दिखाने पर भी विचार करना होगा।


Wednesday, 30 October 2013

पहचान की परिभाषा


मेरी एक मित्र हैं, नारी विमर्श से जुड़े सभी मुद्दों पर उनकी राय बेजोड़ है। पर उनके एक सवाल ने मेरे मन में अनेक सवालों को जन्म दे दिया। उनका कहना था कि हर तरह के फॉर्म में सिर्फ पिता या पति का नाम क्यों पूछा जाता है? माता या पत्नी का क्यों नहीं? उन्हें पिता के नाम पर तो फिर भी कम आपत्ति थी पर पति को वो अपनी पहचान का हिस्सा मानने को बिल्कुल तैयार नहीं, (गौरतलब ये है कि वो शादीशुदा हैं)। उनका तर्क है कि अगर पत्नी के लिए अपने साथ पति की पहचान जोड़ना ज़रूरी है तो फिर पति की पहचान पत्नी के नाम से क्यों नहीं।
ये तो एक उदाहरण था। अब दूसरा सुनिए..मैं ट्रेन से दिल्ली से कानपुर आ रही थी। चेअर कार कंपार्टमेंट में मेरी आगे वाली सीट पर एक महिला यात्री आई...उम्र 30-35 के बीच रही होगी। उनके पास एक बड़ा सा बैग था, जिसे वो ऊपर रखने की कोशिश कर रही थीं, पर उनसे वो बैग उठाया नहीं जा रहा था..तभी उनकी बगल की सीट पर बैठे एक यात्री ने उनकी मदद करने की कोशिश की, पर उस महिला ने मदद लेने से साफ इंकार कर दिया, साथ ही उस आदमी को नसीहत भी दे दी कि औरतों को कमज़ोर मत समझा करों। आखिरकार उन्हें अपना बैग नीचे ही रखना पड़ा और पूरे सफर के दौरान गैलरी से आने जाने वाले यात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़ा।
मैं खुद महिलाओं के विकास और सुरक्षा की समर्थक हूं पर इस तरह पुरूषमुक्त समाज की नहीं। हमें ये क्यों नहीं समझ आता कि स्त्री और पुरुष दोनों ही इस सृष्टि के निर्माण और विकास के बराबर हिस्सेदार हैं, इनमें से कोई भी अकेले 100 फ़ीसदी का अधिकार हासिल नहीं कर सकता और अगर ऐसा करने की कोशिश हुई तो सिर्फ विनाश और विराम ही हाथ लगेगा।
सिर्फ एक फॉर्म में पत्नी या माता का नाम दर्ज हो जाने से सम्पूर्ण नारी जाति को उसकी पहचान नहीं मिल सकती, या फिर किसी पुरूष की मदद ले लेने से किसी स्त्री का कद कतई नहीं घट सकता। हमारे देश के कई इलाक़ों में न तो स्त्री को अपना नाम लिखना आता है न पुरुष को, दिन रात पेट की भूख मिटाने में जुटे ऐसे लोगों को भरपेट भोजन मिलना ही सम्मान पा लेने जैसा लगता है, ऐसे में किसी कागज पर नाम दर्ज करा लेने उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता। रहीं बात औरतों के साथ हो रहे अपराध और अन्याय की तो इसके लिए उन्हें सुरक्षा और उससे भी ज़्यादा आत्मरक्षा के लिए जागरुक बनाना ज़रूरी है। औरत होने के नाते हमें अपने साथ हो रहे हर तरह के अन्याय के लिए आवाज़ उठानी चाहिए और अपने हर अधिकार के लिए लड़ना चाहिए, पर इसके लिए हमें अपने घर और बाहर मौजूद उन पुरूषों को दोयम दर्जे पर बिल्कुल नहीं रखना चाहिए जो हर तरह से हर परिस्थिति में हमारे साथी बने हैं। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि मान लीजिए आप के घर में आग लग जाए और सबकुछ तबाह हो जाए या फिर बाढ़ का पानी आपके बसे बसाए आशियाने को बहाकर ले जाए तो फिर आप क्या करेंगे?? क्या फिर आप जब तक ज़िंदा रहेंगे तब तक आग पर खाना नहीं बनाएंगे? या फिर पानी के बिना जी पाएंगे? ठीक वैसे ही औरतों के साथ हो रहे अन्याय के लिए सिर्फ दोषी पुरूषों से ही नफ़रत की जा सकती है इस धरती पर उनके अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। महिलावादी होना बिल्कुल ग़लत नहीं पर अपनी पहचान के लिए अपने से जुड़े हर रिश्ते को कुर्बान कर देना मेरी समझ से परे है, मैं ग़लत भी हो सकती हूं पर मेरा मानना है कि अगर आप सारे बंधनों से परे अपनी बड़ी पहचान के साथ कितनी भी ऊंचाई पर हो आपके ऑफिस का प्यून, आप का ड्राइवर, आपका धोबी या फिर सब्जी वाला इनमें कोई भी पुरूष हो सकता है और आप अपनी रोजमर्रा की ज़िदंगी में इनकी मौजूदगी चाह कर भी नकार नहीं सकतीं।