Monday 3 February 2014

अंश, पर वंश नहीं?




घर का चिराग, वंश को आगे बढ़ाने वाला, बुढ़ापे की लाठी और न जाने क्या क्या तमगे बेटों को गाहे बगाहे दिए जाते हैं । बेटियों को भी कोई घर की लक्ष्मी कहता है तो कोई परिवार की इज्ज़त। पर ऐसे लोगों की भी कमी नही जो बेटियों के दुनिया में आते ही उन्हें पराया धन और दान बताना शुरू कर देते हैं अगर उन्हीं के शब्दों को थोड़ा विस्तार से समझें तो बेटियां मां-बाप के घर किसी दूसरे की अमानत होती हैं जिन्हें सही वक्त आने पर उनके असली हकदार को दान कर दिया जाता है। कितनी बुरी सोच है ये, ऐसे वाक्य जिन्हें अगर अपशब्दों की श्रेणी में रख दिया जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। लोग अपनी मुट्ठी भर निर्जीव ज़मीन से इतना लगाव रखते हैं कि दूसरे हाथों में उसे जाता देख खूनखराबे पर उतर आते हैं फिर बड़ी आसानी से एक जीती जागती स्त्री को पराया धन कैसे कह देते हैं। ये शब्द, विचार और बातें हमारे समाज में इस तरह रच बस गई हैं कि इस पर कितनी ही बहस कर ली जाय इस ग़लत सोच को लोग रीति-रिवाज़, धर्म और समाज की चादरों से ढांक कर सही साबित करते रहेंगे।

कुछ दिनों पहले की बात है मेरी एक मित्र ने बेटी को जन्म दिया ये उसका दूसरा बच्चा है। पर ये ख़बर मुझे जिस रूप में दी गई वो कुछ इस तरह थी, अरे फिर से लड़की पैदा हो गई। मैं दोस्त से मिलने और बधाई देने उसके घर गई वहां कुछ लोगों के चेहरे इस तरह मुरझाए नज़र आए मानो कोई लूट ले गया हो उन्हें। मेरी मित्र के ससुर जी को दोहरा सदमा लगा था एक तो बच्चा ऑपरेशन से हुआ जिसमें 60 हज़ार का खर्चा हो गया दूसरा फिर से बिटिया आ गई। उनका मानना था कि लड़का हो जाता तो खर्चा करना सफल हो जाता और घर का चिराग भी मिल जाता। बड़ा अफसोस हो रहा था उनकी सोच पर लेकिन तसल्ली थी कि मेरी दोस्त और उनके पति ऐसी बातों से विचलित हुए बिना अपनी बेटियों को ही अपनी दुनिया मानते हैं। मन तो बहुत हुआ कि वापस आने से पहले पूज्य अंकल जी से चंद सवाल करूं और उनकी घटिया सोच की बुनियाद को थोड़ा हिलाने की कोशिश करूं पर मौके और रिश्ते की नज़ाकत को देखते हुए इस काम के लिए दूसरे वक्त और महौल का इंतज़ार करना बेहतर समझा।

सवाल ऐसे है जो मन और मस्तिष्क के किसी भी कोने में छिपने को तैयार नहीं। समझ नहीं आता आखिर बेटे दो हों या चार जब इस बात पर लोगों को तकलीफ नहीं होती तो फिर दो बेटियां क्यों आंख की किरकिरी बन जाती हैं। क्या फर्क पड़ जाता है औलाद के लिंग से। क्या बेटियां ज़्यादा खाना खाती है, क्या उन्हें पढ़ाने और पालने में बेटों की तुलना में ज़्यादा धन खर्च होता है क्या है वजह बेटियों की पैदाइश से नफ़रत करने की। क्या भार लाद लेती हैं ये बेटियां परिवार और समाज पर जो बात बात पर उन्हें बोझ घोषित कर दिया जाता है। उन्हें स्कूल भेजने से पहले ही उनकी शादी के खर्च का ब्यौरा तैयार होने लगता है । क्या शादी से आगे या उससे इतर बेटियों का कोई भविष्य नहीं होता। जब बेटों के भविष्य के लिए ज़मीन जायदाद इकट्ठा करने में किसी को कोई तकलीफ नहीं होती फिर बेटी के भविष्य के लिए धन जमा करने को मजबूरी क्यों बना देते हैं।

सबसे तकलीफ़देह बात यह मानना कि वंश बेटे आगे बढ़ाते हैं? क्या बेटियां आसमान से टपकती जो उन्हें पैदा होते ही पराया घोषित कर दिया जाता है? आखिर उनमें भी मां-बाप का अंश उतना ही होता है जितना किसी बेटे में फिर किस आधार पर बेटों को ही वंश का मालिक क्यों घोषित कर दिया गया है। क्या बेटियां अपने नाम के साथ साथ अपने मां-बाप का नाम आगे नहीं बढ़ाती क्या उनका अस्तित्व समाज में उनके परिवार की अगुवाई नहीं कर सकता। ज़रूरी है इन मुद्दों का बार बार उठना शायद इसी तरह उठते गिरते इन सवालों को इनका उत्तर और मंज़िल मिल जाए।

                              -शिखा द्विवेदी